SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर [६९] सत्य किसका ! बो उसे पाए उसका । जो वाङ्मय सत्यप्त होता है वह संसार भर की सम्पत्ति है । उसका उपभोग करने के लिए जगत का कोई भी मनुष्य हकदार है।" हिन्दीभाषी संसार इस पुस्तक से अभी भी अपरिचित है, इसलिए आलोचना द्वारा इसकी कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डालना यहां आवश्यक है। संवत् २०१२ सन् १९५५ ई. में श्रीगणेशप्रसाद वर्णी जैन प्रन्थमाला, काशी से प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य, प्राध्यापक संस्कृतमहाविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस का लिखा इसी नाम का ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। ग्रन्थमाला के सम्पादक व नियामक पं. श्रीफूल चन्दजी सिद्धान्तशास्त्री और पं. बन्सीधरजी व्याकरणाचार्य ने उस पुस्तक की संयुक्त अपनी बात में लिखा है कि " इस विषय पर जैनदर्शन नाम की अब तक दो कृतियाँ हमारे देखने में आई हैं। प्रथम श्रीयुत पं. बेचरदासजी दोशी की और दूसरी श्वे. मुनि श्रीन्यायविजयजी की। पहली कृति षड्दर्शनसमुच्चय (हरिभद्रसरिरचित) के बैनदर्शन भाग का रूपान्तर मात्र है और दूसरी कृति स्वतन्त्र भाव से लिखी गई है। किन्तु इसमें तत्त्वज्ञान का दार्शनिक दृष्टि से विशेष ऊहापोह नहीं किया गया है। पुस्तक के अन्त में ही कुछ अन्याय हैं जिनमें स्वाद्वाद, समभनी मौर नय बैसे कुछ चुने हुए विषयों पर प्रकाश डाला गया है। शेष परी पुस्तक तत्त्वज्ञान की रष्टि से लिखी गई है।" इससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034938
Book TitleMaha Manav Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherTapagaccha Jain Sangh
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy