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लेखक की भोर से
प्राज मन और बुद्धि के क्षेत्र में निरन्तर अधिक विकास होते रहने के कारण 'उसके मापदण्ड से जो समझ में आये वही सत्य' ऐसा विज्ञानवाद की चकाचौंध में पड़े हुए बुद्धिजीवियों का मानस बनता जा रहा है।
यही कारण है कि बुद्धि के बाह्य घटाटोप तथा मञ्च के बल पर जनता के अधिनायक बनकर बैठे हुए विद्वानों के पीछे सामान्य जनता भी आकृष्ट हो रही है।
फलतः बुद्धि और मन से अगोचर सनातन सत्य के स्वरूप का संवेदन जीवन शुद्धि द्वारा करने का राजमार्ग प्रायः अपरिचित बनता जा रहा है । इसी से तत्त्वज्ञान और संस्कृति के बहुमूल्य तत्त्वों का अवमूल्यन होने लगता है।
मन और बुद्धि से भी आगे स्वसंवेदन की भूमिका पर पहुँच कर ज्ञात किये गये सर्वहितकारी सनातन सत्यों के बदले में बुद्धि और मन की चित्र-विचित्र कल्पनाओं की आधारशिला पर आज अतीन्द्रिय पदार्थों की विकृत मान्यताएँ प्रस्तुत हो रही हैं तथा सांस्कृतिक ह्रास करने के मलिन प्राशय वाली काल्पनिक मान्यताओं को राजकीय नेतृगण राज्याश्रय देकर अधिक से अधिक साकार बना
ऐसी मान्यताओं में "पृथ्वी गोल है और वह घूमती है"
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