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को क्रमिक अदृश्यता में भी पथ्वी का गोलाकार कारणभूत नहीं है अपितु हमारो दृष्टिशक्ति की मर्यादा इसमें हेतुरूप है ।
इस बात को समझने के लिये एक और उदाहरण लीजिये
रेल्वे के दोनों पटरियों के बीच खड़े रहकर यदि दूर-दूर दृष्टि डालते हैं तो दोनों पटरियां मिलकर एक दिखाई देती हैं, जब कि वास्तविक स्थिति यह रहती है कि वे परस्पर मिलती नहीं ऐसी स्थिति में इसे दृष्टिदोष ही कहा जाएगा ।
हमारी आँख की कीकियाँ बहिर्गोल होती हैं । और बहिर्गोलता के कारण ही हम जिस वस्तु को देखते हैं वह ज्योंज्यों दूर होती जाती है त्यों-त्यों छोटी दिखाई देने लगती है ।
इसके अतिरिक्त आधुनिक गणितशास्त्र की यह मान्यता है कि प्रत्येक देखने वाला अपने चारों और स्थित वस्तुओं के साथ अपनी दृष्टि का ४५ अंश का कोण बनाता हुआ ही देख सकता है । उससे आगे की वस्तुएं दृष्टि से ओझल हो जाती हैं । इस ४५ अंश का जो कोरण बनता है. वह त्रिकोण बनता है और उसमें शून्य अंश से ४५ अंश तक कोई भी वस्तु क्रमश धीरे धीरे छोटी दिखने लगती है और ४५ अंश से अधिक दूर होने पर उनका दिखना बन्द हो जाता है ।
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