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तेरापुर के राजा का नाम शिव सुना था । शुभचन्द्र ने तेरापुर के दो भिल्ला 'धारा' और 'शिव' नामधारियों का उल्लेख किया है। यह भी सम्भव है कि वहां कोई शिव का मंदिर बनने से वह नाम पड़ा। मूल गुफा के साम्हने जो आजकल शिव का मंदिर है वह बहुत प्राचीन नही है ।
पहली गुफा किसने बनवाई ?
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अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जिस प्राचीन गुफा को करकण्डु ने तरापुर में बनी पाई वह किस ने बनवाई होगी । यह प्रश्न करकण्डु को भी उपस्थित हुआ था और उन्हे एक विद्याधर ने इसका उत्तर दिया था । सौभाग्य से कनकामर ने उस का वर्णन अपने ग्रंथ में किया है । विद्याधर ने करकण्डु से कहा था कि दक्षिण विजयार्ध में नील और महानील नामके दो विद्याधर भ्राता राज्य करते थे। शत्रुओं से पराजित होकर वे वहां से भागे और तेरापुर आये। यहां उन्होने धीरे धीरे एक राज्य स्थापित कर लिया । एक मुनि ने उन्हें जैन धर्म का उपदेश दिया और उन्होने फिर वह गुफा मंदिर बनवाया । है तो यह पौराणिक कथा, किन्तु खोज करने से इसमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्रतीत होता है ! आठवीं शताब्दि और उसके पश्चात् के कई शिलालेखों में एक शिलाहार नाम के राजवंश का उल्लेख मिलता है । इनकी तीन शाखाओं ने क्रमशः उत्तर कोकण, दक्षिण कोकण तथा कोल्हापुर के आसपास राज्य किया। तीनों शाखाओं के राजाओं ने अपने शिलालेखों में अपने को 'जीमूत वाहन विद्याधर के वंशज' तथा तगरपुर के अधीश्वर' कहा है। इससे विदित होता है कि उनके पूर्वजों ने कभी तगरपुर में राज्य किया होगा । तगरपुर वही 'तेर ' व कनकामर का तेरापुर सिद्ध हो चुका है। अतएव शिलाहार वंश के सम्बन्ध की उक्त दो बातों पर से ऐसा प्रतीत होता है कि यह वंश सम्भवतः कनकामर द्वारा कथित नील महानील से ही चला । कथासरित्सागर में वर्णन है कि जीमूतवाहन विद्याधरों का राजा था। उसने एक वार अपने दान और त्याग की बड़ी प्रशंसा की इसी से वह पदभ्रष्ट हो गया । वहीं पर दक्षिण विजयार्ध या वैद्य का भी वर्णन है, और बताया गया है कि हिमाचल पर्वत की दो श्रेणियां हैं, कैलाश से उत्तर की श्रेणी उत्तर वेद्यर्ध और दक्षिण की दक्षिण वैद्यर्ध कहलाती है । कथासरित्सागर से यह भी पता चलता है कि एक वार वत्सदेश के नरवाहनदत्त और विजयार्ध के विद्याधरों के बीच बड़ा घोर युद्ध हुआ था जिसके अन्त में विद्याधर हार गये और नरवाहनदत्त के अधीन हो गये । सम्भवतः यही शत्रुबल था जिससे पराजित होकर नील और महानील विद्याधर दक्षिण को गये । पद्मगुप्त-कृत नवसाहसांकचरित नामक संस्कृत काव्य में नर्मदा के दक्षिण में एक विद्याधर राजकुल का उल्लेख है । इन विद्याधरों ने मालवा के सिन्धुराज की सहायता की थी। इस प्रकार कनकामर की कही हुई बातों की अन्य ग्रंथों तथा शिलालेखों से भी पुष्टि होती है । इससे अनुमान होता है कि सम्भवतः नील महानील के वंशज ही शिलाहार वंश के नाम से
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