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(२) सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुप्पदन्त का उल्लेख किया है। इनमें से समय की अपेक्षा सबसे अन्तिम पुष्पदन्त ही ज्ञात होते हैं। इन्होने अपना महापुराण सन् ९६५ ई. में समाप्त किया था। अतः इतना तो निश्चय हो गया कि ग्रंथ सन् ९६५ के पश्चात् और १५०२ से पूर्व बना है। जिस 'आसाइय' नगरी में रहकर कवि ने ग्रंथ-रचना की उसका भी निश्चय नहीं होता कि यह कहां थी तथा जिन राजाओं का उन्होने उल्लेख किया है उनका भी कुछ निश्चित इतिहास ज्ञात नहीं है। कारंजा की प्रति में 'आसाइय' नगरी पर 'आसापुरी' ऐसा टिप्पण है। इससे जान पड़ता है कि उस नगरी को आसापुरी भी कहते थे। खोज करने पर इस नाम के अनेक स्थानों का पता लगा । एक तो 'आसाई' नाम का इतिहास प्रसिद्ध वह स्थान है जहां सन् १८०३ में मराठों और अंग्रेजों का युद्ध हुआ था। यह हैदराबाद राज्य के औरंगावाद जिले के अन्तर्गत है। यह अव एक छोटासा ग्राम है। उसका पूर्व इतिहास कछ विदित नहीं है। दसरा खानदेश में आसीरगढ नाम का किला है जिसका यह नाम वहां स्थापित आसादेवी परसे पड़ा। कहा जाता है कि इस किले को मौखरी वंश (लगभग सन् ६००) के एक नरेश ने अपनी पुत्रप्राप्ति की आशा पूर्ण होने के उपलक्ष्य में बनवाया था। किले के पास का एक छोटासा ग्राम अब भी 'आसी' कहलाता है। एक तीसरा आसी नाम का स्थान राजपुताने के वृन्दी राज्य में है। यह भी एक किला है । पंजाब के कांगड़ा जिले के अन्तगत कीरग्राम से बारह मील दूरी पर एक पहाड़ी है जिसकी चोटी पर आसापुरी देवी की स्थापना है और जिसके कारण वह स्थान आसा पुरी कहलाता है। इस मंदिर को एक राजा चंद्रभान के पुत्र विजयराम ने बनवाया था। पाठक नाम पर से विजयराम को इस ग्रंथ के विजयपाल ठहराने का इरादा न करें क्योंकि ये विजयराम सत्रहवीं शताब्दि में हुए हैं और प्रस्तुत ग्रंथ जैसा ऊपर बतला आये हैं, इससे पूर्वही बन चुका था। इत्यादि । किन्तु इन नाम मात्र की समानताओं से हमें हमारे ग्रंथ की रचना के स्थान का निर्णय करने में विशेष सहायता नहीं मिलती, जब तक किसी स्थान के साथ उपर्युक्त राजाओं का भी कुछ इतिहास न पाया जावे । यदि नाम मात्र पर से स्थान का निर्णय करने को जी चाहे तो अंग्रेज-मराठा युद्ध वाली ' आसाई' अधिक उपयुक्त अँचती है। एक तो ग्रंथ में निर्दिष्ट 'आसाइय' से इसमें विशेष शब्द-साम्य है और दूसरे वह आगे चलकर वतलाई हुई करकंडु की गुफाओं के और स्थानों की अपेक्षा, अधिक समीप है। यह सम्भव है कि मुनि कनकामर इन गुफाओं का दर्शन करके ही वहां आये हों और उसी प्रभाव में उन्होंने इस करकंडु-चरित की रचना की हो । सम्भव है विजयपाल और उनके पुत्र यहीं राष्ट्रकृट नरेश कृष्ण के आधीन राज्य करते हो। कृष्ण पुष्पदन्त के समय में थे। पुष्पदन्त ने उनका उल्लेख 'कण्ह · नाम से किया है। उसका अपभ्रंश रूप कण्ण भी हो सकता है।
__ जैसा ऊपर कहा जा चुका है, ग्रंथ में उल्लिखित राजाओं का कुछ इतिहास निश्चित ज्ञात नहीं है । तीनों नाम ऐसे हैं जो राजपुताने के तथा अन्य स्थानों के प्राचीन राजाओं की
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