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________________ अथवा पानी के अतिरिक्त तीन प्रकार के आहारों का त्याग कर आठ पहर पर्यन्त पौषध की क्रिया करे और धर्मध्यान धावे । यह ग्यारहवां पौषधोपवास व्रत है। (१२) अतिथि संविभाग व्रत-न्यायोपार्जित धन से जो अन्न अपने खाने के लिये तैयार हुआ हो उसमें से निर्दोष भिक्षा साधु को देवे । अन्धे, लूले, लंगड़े आदि जो मांगने आवे उनको अपनी शक्ति के अनुसार अनुकम्पा दान दे। यह अतिथि संविभाग नामक बारहवां व्रत है । इन बारह व्रतों का स्वरूप विस्तार सहित श्राद्ध प्रज्ञप्ति, आवश्यक सूत्रादि शास्त्रों में कहा गया है । गृहस्थ धर्मी-श्रावक के अहोरात्रि के कृत्य संक्षेप में यहां लिखे जाते हैं दिन कृत्य रात्रि का आठवां भाग अर्थात् चार घड़ी रात्रि जब शेष रहे तब निद्रा छोड़ कर मन में सात आठ बार पञ्च-परमेष्ठी को नमस्कार-स्मरण करे। उसके बाद मैं कौन हूँ ? मेरी क्या अवस्था है ? मेरा क्या कुल है ? मुझ में मूल गुणx कौन कौन से, कितने और कैसे हैं ? उत्तर गुण कौन कौन से हैं ? किस वस्तु का मेरे नियम अभिग्रह विशेष है, तथा मेरे पास जो धन है उसमें से-१ जिन भवन, २ जिन बिंब, ३ इनकी ४ बारह व्रतों में से आदि के पांच व्रतों को अणुव्रत तथा मूल गुण कहते है। + बारह व्रतों में से अन्तिम सात व्रत उत्तर गुण कहलाते है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034895
Book TitleJainism
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabh Smarak Nidhi
PublisherVallabh Smarak Nidhi
Publication Year1957
Total Pages98
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size7 MB
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