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१६ - जगद्बासी जीव और मोक्षात्मा, दोनों स्वरूप में एक समान परन्तु बन्धाबन्ध से भेद हैx |
हैं,
१७ –– जगद्वासी आत्मा शरीर मात्र व्यापक है, * सर्व व्यापक नहीं । १८ - जगद्वासी आत्मायें अपने किये शुभाशुभ कर्मों से अनेक तरह की योनियों में उत्पन्न होती हैं ।
१९ - जगद्वासी आत्मा अपने अपने निमित्तों से कर्म-फल का भोक्ता है दूसरा कोई फल दाता नहीं ।
२० - संसार में जड़ और चैतन्य द्रव्य अनादि हैं ये किसी के रचे हुए नहीं ।
२१ - जगत् में जीव अनन्तानन्त हैं, अतः जीवों के मोक्ष में जाने पर भी संसार कदापि जीव रहित नहीं होगा ।
२२ - जीव के स्वरूप और ईश्वर के स्वरूप में एक सदृशता है । २३ – कर्मों के सम्बन्ध से जीव समल है और कर्म रहित होने से ईश्वर निर्मल है |
२४ - जो अठारह दूषणों रहित हो उसको देव अर्थात् परमेश्वर मानते हैं ।
x संसारी और मुक्त आत्मा दोनों वैसे तो एक जेसे है परन्तु केवल इतना अन्तर है कि संसारी आत्मा के साथ कर्म लगे हुए हैं और मुक्त आत्मा के साथ कर्म नहीं है।
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* जो आत्मा जिस शरीर में जाती है वह उसी शरीर प्रमाण में हो जाती है । कीडी में कीडी के देह प्रमाण आत्मा है और हाथी में हाथी के देह प्रमाण । आत्मा सर्व व्यापक नहीं होती ।
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