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७-जगत् का नियन्ता जड़ और चैतन्य की काल स्वभाव,
नियति, कर्म और पुरुषार्थ रूप अनादि शक्तियों को मानते है । ८-ईश्वर जीवों के शुभाशुभ कर्म-फल का दाता नहीं परन्तु
ईश्वर पद को साक्षी ज्ञातृरूप से मानते हैं।
-ईश्वर जो चाहे कर सकता है, इस प्रकार नहीं मानते हैं। १०-ईश्वर को जीवन मोक्ष अवस्था में अर्थात् त्रयोदशम-गुण
स्थान में धर्मोपदेश का दाता मानते हैं, परन्तु विदेह मोक्ष
हुए पीछे नहीं। ११-ईश्वर का जगत् में अवतार होना नहीं मानते । १२-मोक्ष पद को अनादि अनन्त मानते हैं। १३-मोक्ष पद में अनन्त आत्मायें मानते हैं। १४-मोक्ष पद ( आत्मत्व) जाति की उपेक्षा से एक ही
मानते हैं। १५-जहां सभी आत्मायें परस्पर एकात्मा हैं, वहां अनन्त
आत्मायें हैं दीपकों के प्रकाश की तरह स्थानान्तर की जरूरत नहीं।
* परमात्म पद को प्राप्त आत्मायें मोक्ष में अनेक है, वे सब दीपकों के प्रकाश की तरह एक दूसरे में मिली हुई हैं, अतः आत्मत्व जाति की अपेक्षा से हम उन्हें एक ईश्वर भी कह सकते हैं।
जैसे एक स्थान पर कईक दीपक हों तो उनका प्रकाश एक दूसरे में मिल जाता है, सब दीपकों के प्रकाश के लिये अलग-अलग स्थान की आवश्यकता नहीं। इसी तरह प्रत्येक आत्मा के लिये भिन्न-भिन्न स्थान की आवश्यकता नहीं।
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