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कारक होता है. औषध दान और अभयदान देनेसे उसके एक जन्मतकके उपकारी होते हैं. और सम्यग्ज्ञानका दान लक्षावधि जन्मका दुःख निवारण होनेमें कारण होता है. सो यह तीन प्रकार यथाविधि उपकारमें समर्थ है ऐसा समझना. "
भ्रातृगण, देखिए हमारे पूर्वाचार्यों का लक्ष ज्ञानदानकी तरफ कितना झुकाथा ? ज्ञानसे ही सब कल्याण हैं ऐसा जगह जगह आचायोंने उपदेश दिया है. देखिये पद्मनंदिस्वामी कहते हैं-
अज्ञो यद्भवयोटिभिः क्षपयति स्वं कर्म तस्मान्दहु । स्वीकुर्वन् कृतसंबरः स्थिरमना ज्ञानी तु तत्त त्क्षणात् ॥
अर्थात्ः - अज्ञानी पुरूष कोट्यावधी जनमोंमें जो कर्मोका क्षय कर सकता है और उसके साथ साथ ही बहुतसे कर्म ग्रहणभी करता है. और ज्ञानी पुरूष, जिसने नवीन कर्म ग्रहण करनेको रोंक दिया है सो स्थिरमन करके प्राचीन कर्मोंकों क्षणमात्रमें नष्ट कर देता है. और भी वट्टकेर स्वामीका वाक्य लीजिए.
जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं ॥ तं णाणी तिहिगुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण ॥ ॥
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अर्थात्ः – जो कर्म अज्ञानीको खिपानेमें लक्ष्यावधि कोट्यावधि जन्म लेने पडते हैं उस कर्मको ज्ञानी पुरूष तीन गुप्तीसे अंतर्मुहूर्त में क्षीण करता है. सज्जनवृंद, जैन धर्मका अंतिम ध्येय तो ज्ञान ही है. संसारी जीव जब संसार दुःखोंसे छूटकर मोक्ष सुखके तरफ प्रयत्न करता है तब बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानमें चार घातिया कर्मों का नाश कर तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थानको पहुंचता है. उस बखत उसको केवलज्ञान हुवा ऐसा कहते हैं. केवल माने सिर्फ ज्ञान ही ज्ञान, अनंत ज्ञान; जो संपूर्ण त्रैलोक्यके चराचर पदार्थोंको यथार्थ पने
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