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अध्यात्म और धर्मशास्त्रका भेलसेल खिचडी है. यदि जैन और बौद्ध पंडितोनें चौथी शताब्दी से न्यायका यथार्थ अंतःकरणपूर्वक अभ्यास न किया होता, तो शुद्ध न्याय शास्त्र देखने में आना सर्वथा अशक्य था. जैन न्यायके कोई कोई ग्रंथ जैसे न्यायावतार, परीक्षामुख सूत्र, न्यायदीपिका इत्यादि ग्रंथोका अनुवाद और शोधन जब मैं करताथा उस समय उन ग्रंथों में विचार करने की पद्धती में जो सत्यप्रमाणता, यथार्थता और अल्पविस्तारता देखने में आई उससे मैं चकित हो गया ! और न्यायशास्त्रों का प्राचीन पद्धतीसे इस नवीन पद्धतीतक जो धीरे धीरे विकास जैन न्यायाचार्योंने किया वह देखकर मुझे बडाही आश्चर्य हुवा. बहुतेरे जैन न्यायशास्त्रियोंने न्यायके ग्रंथ रचे हैं, और उनके रचे हुए ग्रंथोंसें न्यायकी पद्धतीमें बडे अमोल ग्रंथ बीचकी शताब्दी में भरती हुए हैं. न्यायशास्त्रों का मध्ययुगीन शिक्षाप्रचार केवल जैन और बौद्ध नैयायिकों के ग्रंथोंसेंहि प्रवर्ता हुआ जानने में आता है. अर्वाचीन ब्राह्मण नैयायिकों कीं न्यायपद्धति, जिसको "नव्य न्याय " ऐसा कहते हैं, और जिसकी रचना चौदहवी शताब्दी में गणेश उपाध्याय ने की है, वह जैन और बौद्ध नैयायिकों के मध्ययुगीन ग्रंथो से उत्पन्न हुई है. व्याकरणशास्त्र और शब्दकोशादि भाषासाहित्य में भी शाकटायन, पद्मनंदी, हेमचंद्र आदिके ग्रंथ उपयुक्तता में और सशास्त्र अल्पविस्तारता में सबसे ऊंचे दर्जेके गिने जाते हैं. छंदशास्त्रमें भी उन्होनें बड़ा भारी विकास किया है. प्राकृत भाषा भी जैनियोंके ग्रंथों में पूर्णतया सौंदर्य और माधुर्य दिखा रहीं है. ब्राह्मणों के नाटक ग्रंथोंमें जो प्राकृत भाषा उपयोग में लाई गई है, उसका मूल जैनियोंसे ही है, सबब कि जैनियोनेंही अपने ग्रंथोमें पहले उसको उपयोगमें लियाथा ऐसा निश्चित हुवा है. इतिहासके शोधनमें जैन साहित्यका तमाम भूमंडलमे बडा भारी साहाय्य हुवा है, सचच कि, जैन साहित्यने इतिहासके संशोधनमें और प्राचीन कालके पदार्थ शोधन में आजतक बडी भारी सहायता दी है और अभीतक भी जैन साहित्य सहायता देरहा है."
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