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________________ इस परसे ज्ञात होता है कि, जैनियोंका अंतःकरणरूपी भूमिशोधन बहुत अच्छा हुवा है. और यह भूमिशोधन करने में परम पूज्य आचार्य परमेष्टियोंने ही हमारे ऊपर बड़ा उपकार किया है. हरएक प्राणी अपने अपने किये कर्मोके अनुसार सुख दुःख भोगेंगे. भगवान सर्वज्ञ प्रभू तो पाप पुण्यका फल बतलानेवाले और संसार दुःखोंसे छूटनेका जो मार्ग उसको दिखलानेवाले हैं, किंतु अपना भला बुरा होनहार अपने ही हातमें है, साधन तो निमित्तमात्र ही होते हैं, ऐसा परम कल्याणकारी उपदेश हमारे गुरुओंने हजारों वर्षोंसे हमको दिया था वह आजतक चल रहा है. इस अबाध सिद्धांत की झलक भगवद्गीतामें भी जगह जगह देखनेमें आतीहै. देखिये, "न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ उद्धरेदात्मनात्मानमात्मानमवसादयेत् । आत्मैव आत्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥" अर्थात:-" परमेश्वर दुनियाका कर्ता भी बनता नहीं है तथा दुनियाके कर्म बनाता नहीं और कोंके फलोंका संयोग भी मिलाता नहीं. अपने अपने स्वभावसे सब परिणमते हैं. परमेश्वर किसीका पाप ग्रहण करता नहीं, और किसीका पुण्य भी ग्रहण करता नहीं. अज्ञानसे ज्ञान ढक रहा है, जिससे प्राणीमात्र मोहमें पड़े हैं. भाल्मा मापही अपना उदार करेगा और आत्मा आपही अपनेको नीच स्थितीको पहुचावेगा. आत्मा आपही अपना बंधू है और आत्मा आपही अपना शत्रू है." और भी देखिये कि, जैसे हिंदु और मुसलमानोंमें हजारां मादमी रस्तेपर भीख मांगते देखनेमें आते हैं वैसे जैनी कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034888
Book TitleJaina Gazette 1914
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ L Jaini, Ajitprasad
PublisherJaina Gazettee Office
Publication Year1914
Total Pages332
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size21 MB
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