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________________ (१२) अध्यात्म और धर्मशास्त्रका भेलसेल खिचडी है. यदि जैन और बौद्ध पंडितोने चौथी शताब्दीसे न्यायका यथार्थ अंतःकरणपूर्वक अभ्यास न किया होता, तो शुद्ध न्याय शास्त्र देखनेमें आना सर्वथा अशक्य था. जैन न्यायके कोई कोई ग्रंथ जैसे न्यायावतार, परीक्षामुख सूत्र, न्यायदीपिका इत्यादि ग्रंथोका अनुवाद और शोधन जब मैं करताथा उस समय उन ग्रंथोमेंके बिचार करनेकी पद्धतीमें जो सत्यप्रमाणता, यथार्थता और अल्पविस्तारता देखनेमें आई उससे मैं चकित हो गया ! और न्यायशास्त्रोंका प्राचीन पद्धतीसे इस नवीन पद्धतीतक जो धीरे धीरे विकास जैन न्यायाचार्योने किया वह देखकर मुझे बडाही आश्चर्य हुवा. बहुतेरे जैन न्यायशास्त्रियोंने न्यायके ग्रंथ रचेहैं, और उनके रचे हुए ग्रंथोंसे न्यायकी पद्धतीमें बड़े अमोल ग्रंथ बीचकी शताब्दीमें भरती हुएहैं. न्यायशास्त्रोंका मध्ययुगीन शिक्षाप्रचार केवल जैन और बौद्ध नैयायिकोंके ग्रंथोंसेंहि प्रवर्ता हुआ जाननेमें आता है. अर्वाचीन ब्राह्मण नैयायिकोंकी न्यायपद्धति, जिसको " नव्य न्याय" ऐसा कहते हैं, और जिसकी रचना चौदहवी शताब्दीमें गणेश उपाध्यायने की है, वह जैन और बौद्ध नैयायिकों के मध्ययुगीन ग्रंथोसे उत्पन्न हुई है. व्याकरणशास्त्र और शब्दकोशादि भाषासाहित्यमें भी शाकटायन, पद्मनंदी, हेमचंद्र आदिके ग्रंथ उपयुक्ततामें और सशास्त्र अल्पविस्तारतामें सबसे ऊंचे दर्जेके गिने जाते हैं. छंदशास्त्रमें भी उन्होने बडा भारी विकास कियाहै. प्राकृत भाषा भी जैनियों के ग्रंथोमें पूर्णतया सौंदर्य और माधुर्य दिखा रहीहै. ब्राह्मणोंके नाटक ग्रंथोंमें जो प्राकृत भाषा उपयोगमें लाई गई है, उसका मूल जैनियोंसे ही है, सबब कि जैनियोनेही अपने ग्रं. थोमें पहले उसको उपयोगमें लियाथा ऐसा निश्चित हुवाहै. इतिहासके शोधनमें जैन साहित्यका तमाम भूमंडलमे बडा भारी साहाय्य हुवाहै, सबब कि, जैन साहित्यने इतिहासके संशोधनमें और प्राचीन कालके पदार्थ शोधनमें आजतक बडी भारी सहायता दी है और, अभीतक भी जैनसाहित्य सहायता देरहा है." Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034888
Book TitleJaina Gazette 1914
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ L Jaini, Ajitprasad
PublisherJaina Gazettee Office
Publication Year1914
Total Pages332
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size21 MB
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