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खानगी मनुष्यों को भेज कर जैनधर्म का प्रचार कराया था । यही कारण है कि अनार्य देश के आर्द्रकपुर नगर के राजपुत्र आईक कुमार ने भगवान महावीर के चरणकमलों में भगवती जैनदीक्षा को स्वीकार कर धर्म का प्रचार किया था। तत्पश्चात् सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी अपने सुभटों को भेज अनार्य देशों में जैनधर्म का प्रचार किया था। बाद में सम्राट् संप्रति ने तो इस कार्य में अधिक प्रयत्न किया और आपको सफलता भी अच्छी मिली । यही कारण है कि आज पाश्चात्य प्रदेशों में खुदाई के काम से भूगर्भ के अन्दर से अनेक ऐसे पदार्थ निकल रहे हैं कि वे पूर्व जमाने में वहाँ जैन धर्म का प्रचार होना साबित करते हैं। जैसे
आष्ट्रिया प्रान्त के हगरी शहर में भगवान महावीर की अखंड मूर्ति मिली है। अमेरिका में ताम्रमय सिद्ध चक्र का गटा और मंगोलिया प्रान्त में अनेक जैन मन्दिरों के ध्वंसाऽवशेष उपलब्ध हो रहे हैं । इतिहास से यह भी पता मिलता है कि एक समय अफ्रीका में एक जैन धर्माचार्य की अध्यक्षता में शत्रुञ्जय गिरनार
आदि तीर्थों की रचना हुई जिससे वहां के लोगों पर जैनधर्म का अच्छा प्रभाव पड़ा था। इसी प्रकार एक समय तिब्बत में शास्त्रार्थ का काम पड़ने पर भारत से जैनाचार्य ने तिब्बत में जाकर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त कर जैनधर्म का झण्डा फहराया था। इत्यादि साधनों से पाया जाता है कि एक समय जैनधर्म का डंका चारों ओर बज रहा था।
जैनियों को धर्म भावना यहां तक बढ़ी हुई थी कि वे अपने पूज्य आराध्य तीर्थङ्करों की जन्मभूमि तक को पवित्र समम वहां
की यात्रा कर अपने को कृतकृत्य समझते थे, और आज भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com