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समझ रहे हैं और उस भूमि को कल्याणक भमि के नाम से पुकारते हैं। जैसे :-अयोध्या, सावत्थी, कौशांबी, बनारसी, चन्द्रपुरी, काकंदी, भदलपुरी, सिंहपुर, कपिलपुर, रत्नपुर, गजपुर, मिथला, राजगृह, मथुरा, शौरीपुर और क्षत्रियकुण्ड नगर ये तीर्थङ्करों के जन्म स्थान हैं। जैन जनता बहुत दूर दूर से इन कल्याणक भूमियों की यात्रा करने को आती है और उन कल्याणक भूमि का स्पर्श कर अपने आपको सफल हुई समझता है।
पूर्वोक्त कल्याणक भूमियों में मथुरा भी एक कल्याणक भमि है। इक्कीसवें तीर्थङ्कर नमिनाथजी का जन्म मथुरा नगरी में हुआ था। अतएव मथुरा में जैनियों के सैंकड़ों मन्दिर और हजारों घर होना स्वाभाविक है। अर्थात् एक समय मथुग जैनों का केन्द्र स्थान समझा जाता था और इसके कई प्रमाण भी मिलते हैं :
(१) ऐतिहासिक साधनों एवं शिलालेखों से ज्ञात होता है कि विक्रम पूर्व दो तीन शताब्दी तक तो वहां ( मथुरा में ) जैनाचार्यों का आना जाना और उपदेश हुआ करता था और वे आचार्य वहां की जनता को जैन धर्म की ओर आकर्षित भी किया करते थे।
(२) आचार्य स्कन्दलसूरि के समय ( विक्रम की दूसरी शताब्दी ) मथुरा में जैनों की एक विराट सभा हुई थी। दुष्काल . के बुरे असर से जैनागम अस्त-व्यस्त हो गये थे। अतः उनकी सिलसिलेवार प्रतिसंकलना आप ही की अध्यक्षता में हुई थी। यही कारण है कि जैनों में अङ्ग उपाङ्ग सूत्रों को आज भी माधुरी वाचना कहते हैं।
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