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करवा कर पुराने समय में जैन लोग जैन मन्दिरों में रखते एवं लगाया करते थे । इस पट्ट के नीचे प्राचीन लिपि में एक शिलालेख भी खुदा हुआ है । उसकी नकल यह है :"नमोअरहंताणं सिंहकस्स वणिकस्स ( पुत्तेन ) कोसिकी पुत्त' सिंहनादिकेन यागपटो थापितो अरिहंत पूजाय"
यह लेख प्राकृत भाषा में है । इसका भाव यह है कि सिंहक नामक वणिक की कौशकी नामक भार्या का पुत्र सिंहनादक उसने अरिहंतों की पूजा के लिए इस पट्ट को स्थापित किया है । इसका समय देखो चित्र में ।
२ - लाल पत्थर का छत्ता -- यह सब प्रकार से अखंडित है । इसमें पत्थर पर जो काम है उसे देख कर तबियत खुश हो जाती है। अनुमान है कि यह किसी मूर्ति के ऊपर लगा हुआ होगा ? यह भी बहुत प्राचीन है ।
३ - दरवाजा की बाजु - मथुरा से पश्चिम ७ मील पर मोरीमय ग्राम के खण्डहरों में मिला है इनके ऊपर का काम भी खास देखने काबिल है ।
४ - सूर्य की प्रतिमा - जिस बैठक पर यह मूति है उसकी बनावट बहुत ही अच्छी है । मूर्त्ति के एक एक हाथ में कमलपुष्प है । यह मूर्त्ति कंकाली टीला से नहीं किन्तु केशवजी के मन्दिर से मिली है ।
५ - श्रमण मूर्ति - यह एक तरफ से खण्डित जैन श्रमण कृष्णर्षि की मूर्त्ति है ( इससे जैन श्रमणों के वेष का ठीक पता मिल
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