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जैनधर्म की उदारता पड़ता है जब कि आर्यिका होना संवर और निर्जरा का कारण है जिससे क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति होती है । तब विचार करिये कि एक स्त्री मोक्ष के कारणभूत संवर निर्जरा करने वाले कार्य तो कर सकें और संसार के कारणभूत बंध कर्ता पूजन प्रक्षाल आदि न कर सके, यह कैसे स्वीकार किया जा मकता है ? ___ यदि सच पूछा जाय तो जैनधर्म सदा से उदार रहा है, उसे स्त्री पुरुष या ब्राह्मण शूद्र का कोई पक्षपात नहीं था। हाँ, कुछ ऐसे दुराग्रही पापात्मा हो गये हैं जिन्होंने ऐसे पक्षपाती कथन कर के जैनधर्म को कलंकित किया है। इसी से खेद खिन्न होकर प्राचार्य कस पंडित प्रवर टोडरमलजी ने लिखा है कि
"बहुरि केई पापी पुरुषां अपना कल्पित कथन किया है। अर तिनकौं जिन वचन ठहरावे हैं । तिनकौं जैनमत का शास्त्र जानि प्रमाण न करना । तहां भी प्रमाणादिक ते परीक्षा करि विरुद्ध अर्थ को मिथ्या जानना।"
-मोक्षमार्गप्रकाशक पृ०३०७ ।। तात्पर्य यह है कि जिन ग्रन्थों में जैनधर्म की उदारता के विरुद्ध कथन है वह जैन ग्रंथ कहे जाने पर भी मिथ्या मानना चाहिये। कारण कि कितने ही पक्षपाती लोग अन्य संस्कृतियों से प्रभावित होकर त्रियों के अधिकारों को तथा जैनधर्म की उदारता को कुचलते हुये भी अपने को निष्पक्ष मानकर ग्रंथकार बन बैठे हैं । जहाँ शूद्र कन्यायें भी जिन पूजा और प्रतिमा प्रक्षाल कर सकती हैं (देखो गौतमचरित्र तीसरा अधिकार) वहाँ स्त्रियों को पूजाप्रक्षाल का अनधिकारी बताना महा मृढ़ता नहीं तो और क्या है ? खियाँ पजा प्रक्षाल ही नहीं करती थी किन्तु मुनि दान भी देती थी और भव भी देती हैं। यथा
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