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त्रियों के अधिकार स्तंभ के सहारे बैठे हुये यह स्मशान जाति के विद्याधर हैं ॥१६॥ वैड्र्य मणि के समान नीले नीले वखों को धारण किये पाण्डुर स्तंभ के सहारे बैठे हुये पाण्डुक जाति के विद्याधर हैं ॥ १७ ॥ काले काले मृग चर्मों को अोढे, काले चमड़े के वस्त्र और मालाओं को धारे काल स्तंभ का आश्रय लेकर बैठे हुए ये कालश्वपा जाति के विद्याधर हैं ॥ १८॥ इत्यादि
इससे क्या सिद्ध होता है ? यही न कि रंड मुंड को गले में डाले हुये, हड्डियों के आभूषण पहिने हुये और चमड़े के वस्त्र चढ़ाये हुये लोग भी सिद्धकूट जिन चैत्यालय के दर्शन करते थे ? मगर विचार तो करिये कि आज जैनों ने उस उदारता का कितनी निर्दयता से विनाश किया है। यदि वर्तमान में जैनधर्म की उदारता से काम लिया जाय तो जैनधर्म विश्वधर्म हो जाय और समस्त विश्व जैनधर्मी हो जाय ।
स्त्रियों के अधिकार । जैनधर्म की सब से बड़ी उदारता यह है कि पुरुषों की भांति त्रियों को भी तमाम धार्मिक अधिकार दिये गये हैं। जिस प्रकार पुरुष पूजा प्रक्षाल कर सकता है उसी प्रकार स्त्रियां भी करसकती हैं। यदि पुरुष श्रावक के उच्च ब्रतों को पाल सकता है तो खियां भी उच्च श्राविका होसकती हैं। यदि पुरुष ऊंचे से ऊंचे धर्मग्रन्थों के पाठी होसकते हैं तो स्त्रियों को भी यही अधिकार है । यदि पुरुष मुनि होसकता है तो नियां भी आर्यिका होकर पंच महाव्रत पालन करती हैं।
धार्मिक अधिकारों की भांति सामाजिक अधिकार भी स्त्रियों के लिये समान ही हैं यह बात दूसरी है कि वैदिक धर्म आदि के प्रभाव से जैनसमाज अपने कर्तव्यों को और धर्म की आज्ञाओं
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