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पतितों का उद्धार
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नहीं दिया जाता है । प्रत्युत विरोध तक किया जाता है । क्या यह कम दुर्भाग्य की बात है ? हमारे धर्म शास्त्रों ने आचार शुद्ध होने वाले प्रत्येक वर्ण या जाति के व्यक्ति को शुद्ध माना है । यथाशूद्रोप्युपस्कराचारबपुः शुद्धयास्तु तादृशः । जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्म भाक ॥ सागर धर्मामृत २-२२
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अर्थात्- जो शूद्र भी है यदि उसका आसन वस्त्र आचार: और शरीर शुद्ध है तो वह ब्राह्मणादि के समान है । तथा जाति से हीन (नीच) होकर भी कालादि लब्धि पाकर वह धर्मात्मा हो जाता है ।
यह कैसा स्पष्ट एवं उदारता मय कथन है ! एक महा शूद्र एवं नीच जाति का व्यक्ति अपने आचार विचार एवं रहन सहन को पवित्र करके ब्राह्मण के समान बन जाता है । ऐसी उदारता और कहां मिलेगी ? जैन धर्म तो गुणों की उपासना करना बतलाता है, उसे जन्म जात शरीर को कोई चिन्ता नहीं है । यथा" व्रत स्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ "
रविषेणाचार्य |
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अर्थात- चाण्डाल भी व्रत धारण करके ब्राह्मण हो सकता है । कहिये इतनी महान उदारता और कहां हो सकती है ? सच बात तो यह है कि
जहां वर्ण मे सदाचार पर अधिक दिया जाता हो जोर । तर जाते हों निमिष मात्र में यमपालादिक अंजन चोर ॥ जहां जाति का गर्व न होवे और न हो थोथा अभिमान । वही धर्म है मनुजमात्र को हो जिसमें अधिकार समान ॥ मनुष्य जाति को एक मान कर उसके प्रत्येक व्यक्ति को समान
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