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जैनधर्म की उतारता तदा तद्वतमाहात्म्यात्महाधर्मानुरागतः । सिंहासने समारोप्य देवताभिः शुभर्जलैः ॥२६॥ अभिषिच्य प्रहर्षेण दिव्यवस्त्रादिभिः सुधीः । नानारत्नसुवर्णाद्यः पूजितः परमादरात् ॥२७॥
अर्थात्-उस यमपाल चाण्डाल को व्रत के महात्म्य से तथा धर्मानुरागसे देवों ने सिंहासन पर विराजमान करके उसका अच्छे जल से अभिषेक किया और अनेक वस्त्र तथा आभषणों से सन्मान किया।
इतना ही नहीं किन्तु राजा ने भी उस चाण्डाल के प्रति नम्रीभत हो कर उस से क्षमा याचना की थी तथा स्वयं भी उस की प्रतिष्ठा की थी । यथा
तं प्रभावं समालोक्य राजाद्यः परया मुदा । अभ्यर्चितः स मातंगो यमपालो गुणोज्वलः ॥२८॥ अर्थात-उस चाण्डाल के व्रत प्रभाव को देखकर राजा तथा प्रजा ने बड़े ही हर्ष के साथ गुणों से समुज्वल उस यमपाल चाण्डाल की पूजा की थी।
देखिये यह कितनी आदर्श उदारता है । गुणों के सामने न तो हीन जाति का विचार हुआ और न उसकी अस्पृश्यता ही देखी गई । मात्र एक चाण्डाल के दृढव्रती होने के कारण ही उस का अभिषेक और पजनतक किया गया। यह है जैनधर्म की सच्ची उदारता का एक नमूना ! इसी प्रकरण में जाति मद न करने की शिक्षा देते हुये स्पष्ट लिखा है कि
चाण्डालोऽपि व्रतोपेतः पूजितः देवतादिभिः । तस्मादन्यैनं विमाधैर्जातिगर्यो विधीयते ॥३०॥
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