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जैन-धर्म
[ ६३] रचना का होना ही असम्भव है, क्योंकि ईश्वर को सर्वव्यापक
और निर्विकार भी माना जाता है, अतः इसमें किसी प्रकार की क्रिया और विकार भी पैदा नहीं हो सकते । यदि उसमें क्रिया
और विकार स्वीकार किया जायेगा, जैसा कि जगत जैसी वस्तु की रचना करने के लिए उनका मानना आवश्यक है, तो ईश्वर की सर्व व्यापकता और निर्विकारता भी समूल नष्ट हो जायेगी। यदि कहो कि विना क्रिया और विकार के ही ईश्वर सर्व शक्तिमत्ता द्वारा जगत की रचना करता है, तो यह भी ठीक नहीं। ऐसा मानने पर इच्छा मात्र से जगत की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जिसका होना असम्भव है। यदि इस असंभव कल्पना को भी थोड़ी देर के लिए स्वीकार कर लिया जाये, तो यह प्रश्न आकर गला दबोचता है कि निर्विकार ईश्वर में इच्छा पैदा ही क्यों हुई ? अज्ञानी,मोही, अकृतकृत्य, असन्तुष्ट,दुःखी व अपूर्ण शक्तिसम्पन्न प्राणियों में ही दुःख या आकुलता दूर करने ने लिए इच्छाएँ पैदा हुआ करती हैं ; किन्तु ईश्वर जबकि निर्मोह, कृतकृत्य, पूर्ण सुखी और वस्तुतत्व का ज्ञाता व सर्व शक्तिसम्पन्न है तो उसके इच्छा पैदा हो ही नहीं सकती। यदि फिर भी इच्छा की उत्पत्ति ईश्वर के मानी जायेगी तो उपर्युक्त विशेषणों द्वारा उसका गुणगान करने से क्या लाभ ?
___ यदि कहा जाय कि उपरोक्त गुणों के होते हुए भी उसके कार्य करने की भी इच्छा होती है जिसे वह जगत की रचना कर पूर्ण करता है थोड़ी देर के लिये इस कथन को स्वीकार कर लेने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com