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________________ जैन-धर्म [७४ ] आवश्यकतानुसार भोग करवाने का स्वप्न देखा था उसको भी 'परिग्रह' नामक सर्वभक्षी राक्षस ने नष्ट कर डाला। इसलिए जैसा कि पहिले लिखा जा चुका है, जैनधर्म कहता है कि मनुष्यो ! जिस धनदौलत और राज्य को तृष्णा के वश होकर तुम स्वार्थान्ध होकर दूसरों पर अत्याचारादि असंख्य पापों के करने में जुटे हुए हो और उन्हें प्राप्त कर जो तुम कल्पित सुखों को पाने के स्वप्न देख रहे हो, वह सब तुम्हारा कारा भ्रम और पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। अपनी आत्मा से भिन्न अर्थात् परवस्तु, जिस धन या राज्य आदि की चाह मात्र से आत्मा में अशान्ति और आकुलता घटने के स्थान पर बढ़ने लगती है तथा जिसकी तृप्ति करने के लिए दूसरों के अधिकारों एवं सुखों की निर्मम हत्या करनी पड़ती है, उसकी पूर्ति करके भी आज तक कोई भी तो सुखी न बन सका। बल्कि दूसरे मनुष्यों की भावनाओं में परिग्रही मनुष्य की सर्वभक्षी नियत ने ईर्षा और द्वष को जन्म देकर अशान्ति ही उत्पन्न की है जिसका परिणाम परिग्रही मनुष्य का पतन और अन्त में विनाश हुआ है। सुख हमेशा ही सन्तोषी पुरुषों को प्राप्त हुआ है और होगा। अतः प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह इस परिग्रह रूप महापाप के जाल से जितनी शीघ्रता के साथ निकल सकता हो निकल जाये। और यदि वह पूर्णरूप से इसका त्याग करने में असमर्थ हो तो कम से कम अपनी आवश्यकता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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