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________________ जैन-धर्म वे चार पाप हैं- झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह । झूठ असत्य वचनों को ही नहीं कहते हैं, बल्कि जो दूसरों को पीड़ाकारी हो, निंद्य हों, पापमय हों या स्वार्थवश अन्यथा कहे गये हों, अथवा अपने और दूसरों के गुणों का नाश करने वाले हों, वे सब झूठ वचन ही हैं । ऐसे वचनों से क्योंकि संसार में अशान्ति उत्पन्न होती है, दूसरों को कष्ट पहुँचता है, और बोलने वाले को उस समय मन में भयभीत होना व आगामी उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। इसलिये यह सब वचन हिंसा और पाप हैं । धर्म तो सत्य ही हो सकता है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो संसार में मानव-जगत का सम्पूर्ण व्यवहार प्रायः वचनों के द्वारा चला करता है । वचन के द्वारा ही एक मनुष्य दूसरे को बुलाता, काम करने को कहता, उपदेश देता, व देनलेन का व्यवहार करता है। यहां तक कि अपने हृदय के सम्पूर्ण विचारों को प्रकट करने का एक मात्र उपाय भी वचन ही है। यदि मानव जगत से वचन की प्रवृत्ति नष्ट हो जाय तो मनुष्य और पशु के व्यवहार में सम्भवतः कुछ भी अन्तर न रहे। वचन में बड़ी २ शक्तियां निहित हैं- एक वचन ऐसा होता है जो दुःखी, अशान्त और व्याकुल मनुष्यों के अन्तःकरण में अमृत घोल देता, तथा मृत्यु के मुख में पड़े हुए लोगों को जीवन प्रदान करता है । इसके विपरीत एक वचन ऐसा होता है जो हृदय में तीर सा चुभ जाता है और तलवार, छुरी व बन्दूक की गोली के आघात से भी अधिक पीड़ा व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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