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________________ जैन-धर्म [ ६३ ] बच्चों सहित धोरे २ खाती रही और वे सुमेरुसे भी अधिक स्थिर रह कर उस भीषरण कष्ट के सहते रहे; किन्तु स्यालिनी के प्रति रंच मात्र भी क्रोध या क्षोभ का भाव प्रकट नहीं किया और अन्त में प्राण तक गँवा दिये। कहां तक लिखा जाय, ऐसी २ हजारों कथाएँ सूचित करती हैं कि अहिंसा वीरों का धर्म है जिसमें कायरता का लेशमात्र भी स्थान नहीं है, और जैनधर्मानुसार प्रत्येक गृहस्थ, राजा महाराजा से लेकर ग़रीब से ग़रीब तक व प्रत्येक साधु अपने २ पढ़ व योग्यता एवं शक्ति के अनुसार पालन करते हुए संसार में शांति के साथ जीवन व्यतीत करते हुए आत्मा को पवित्र कर पूर्ण स्वतन्त्र बन सकता है । अहिंसा का पालन वीर पुरुष ही कर सकते तथा अहिंसा वीरों का धर्म है। यह बात सिद्ध करने के लिये हमें दूर जाने की आवश्यकता नहीं है; स्वयं जैनधर्म के सर्वेसर्वा २४ तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त सब ही वीर शिरोमणि राज्य - वंशोत्पन्न क्षत्रिय राजकुमार थे और इनमें से ३ तो चक्रवर्ती सम्राट के पद से भूषित थे, जिन्होंने ६ खण्ड पृथ्वी की रक्षा का भार सँभाल रक्खा था । इन सब ही महापुरुषों ने राज्य का यथायोग्य भार सँभाला और किसी २ ने आजन्म ब्रह्मचर्य पालन करते हुए व राज्य भार को बिना सँभाले ही कुमार वय में कठेार तपश्चर्या कर परमात्म पद प्राप्त किया एवं दूसरों को सन्मार्ग प्रदर्शन किया था। जिससे स्पष्ट है कि अहिंसा वीरों का ही धर्म है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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