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जैन-धर्म
[ ५७ ].
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए मनुष्य का धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों का ठीक २ सेवन करते रहने तथा मोक्ष पुरुषार्थ की ओर अपना लक्ष्य रखने में ही कल्याण है और साथ ही यह भी निश्चित है कि अर्थ पुरुषार्थ ( धन कमाना ) व काम पुरुषार्थ (इन्द्रियों के न्यायोचित भोग भोगना) इन दोनों में आरम्भी व उद्यमी हिंसा भी उससे छूट नहीं सकती; किन्तु फिर भी आजीविका के जिन कार्यों में और भोगोपभोगों की जिन सामग्रियों के भोग में हिंसा अधिक होती हो उनका त्याग भी उसे यथा संभव अवश्य करने का प्रयत्न करना चाहिये और धन कमाते व भोगों का भोग करते समय सदा न्याय तथा दूसरों के उचित अधिकारों व हितों की रक्षा को भी कदापि न भूल जाना चाहिये ; अन्यथा वे अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ न कहला कर संकल्पी हिंसा का स्थान ले लेंगे, जो कि अपने और दूसरों के सुख शान्ति को नष्ट करने में
छुरी का काम
करती है ।
गृहस्थ और विरोधी हिंसा
गृही जीवन में मनुष्य को कभी २ ऐसी परिस्थिति का सामना भी करना पड़ता है जबकि उसके धनादि के अतिरिक्त देश, धर्म, कुटुम्ब, जाति व अपना भी अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। क्योंकि संसार में सब लोगों के लिये धर्म का ठीक २ उपदेश मिलना आसान नहीं है, और यदि मिल भी जाय तो हर
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