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जैन-धर्म
[२७ ] रहेंगे; क्योंकि हर एक के विचार उसकी अपनी परिस्थिति, समझ एवं मानसिक इच्छाओं तथा आवश्यकताओं के भिन्न होने से एक से हो जाना नामुमकिन सा है । सबका ज्ञान
और उसके साधन भी परिमित व भिन्न हैं । यह बात दूसरी है कि किसी विषय या बात के सम्बन्ध में एक से अधिक भो म पुज्य सहमत हो गये हों या हे। जायें, किन्तु यह असम्भव है कि सम्पूर्ण मनुष्यों के विचार किसी भी समय एक से हो जायें । यही कारण है जो एक ही पिता के एक साथ पैदा होने वाले दो पुत्रों के विचारों में भी जमीन और आस्मान से भी अधिक अन्तर दिखाई देता है। प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण या स्वभाव व अवस्थाएँ हुआ करतो हैं, कोई वस्तु को किसी रूप में देखता है और उस पर विचार करता है, दूसरा दूसरी दृष्टि से। जो दूसरी दृष्टि से देखता है वह किसी दृष्टि से ठीक हो सकता है, और तुम्हारा दूसरी दृष्टि से; किन्तु इसके यह मानी नहीं कि तुम्हारी एकांगिक दृष्टि ही ठीक है, तथा दूसरों की ग़लत,
और इस लिये सब को तुम्हारी ही दृष्टि से देखना चाहिये व दूसरे पहलू से उस बात या वस्तु पर विचार ही नहीं करना चाहिये; क्योंकि अपनी २ दृष्टि से विचार करने में सब स्वतन्त्र हैं और सब ही का ज्ञान वस्तु के एक गुण या भाग पर दृष्टि रखने के कारण एक अंशात्मक ज्ञान है न कि पूर्ण ज्ञान । एक मनुष्य किसी को बाप होने से पिता कहता है तो दूसरा उसे ही भाई के नाते भाई, और बहनोई के नाते बहनोई भी कह सकता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com