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________________ जैन-धर्म [२३] सामप्रियां वैसे ही परिमित हैं, जिनकी पूर्ति प्रत्येक प्राणी अव्वल तो कर हो नहीं सकता, और यदि थोड़ी देर के लिये कर भी ले तो उन्हें एक साथ भोग कर उनसे सुखी नहीं बन सकता, जबकि सुख आत्मा का गुण है, न कि आत्मा से भिन्न किसी दूसरी भोगपभोग की सामग्री का, जो कि उनके भोगने से प्राप्त हो जाय । प्रत्युत् जितनी २ भोग सामग्रियों की वृद्धि होगी उतनी ही अाकुलता और अशांति की भी। अतः समझदारी इस बात पर जोर देती है कि दुनियां के ए समझदार प्राणियो! यदि तुम वास्तव में अपना हित चाहते हो और सम्पूर्ण दुःखों से छुटकारा पाकर शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहते हो तो संसार के इन विषेले विषय भोगों को आदर्श मान उनकी पूर्ति के लिये आकुल व्याकुल होकर आत्मशांति भंग करना, और साथ ही दूसरों पर अत्याचार कर उनकी शांति को नष्ट करना, जितने जल्द हो सके, छोड़ दो। इसके साथ ही अपना पारलौकिक उद्देश्य, आत्मोन्नति करते हुए, परमात्मपद प्राप्त करना बनाओ, एवं संसार में सुख शांति की वृद्धि के लिये दूसरों के उचित व अपने ही समान अधिकारों की रक्षा करना, अपने न्याय से प्राप्त भोगों को संतोष से भोगते हुए दूसरे दीन दुखी प्राणियों के दुःखों पर तरस खाकर उनकी हर प्रकार रक्षा व प्रेमपूर्ण निःस्वार्थ सेवा करना अपना प्रथम कर्त्तव्य समझो। जो व्यक्ति भ्रमवश या जान बूझ कर उपरोक्त बहुमूल्य संदेश को पागलों की बकवास कह कर ठुकरावेगा और का। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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