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________________ जैन-धर्म [ १०४ ] से करीब ३००० हजार वर्ष से भी प्राचीन समझा जाता है अपने उणादि, प्रकरण के एक सूत्र में "जिन" शब्द का प्रयोग किया है और ये "जिन" ही जैनधर्म के सर्वेसर्वा हैं। इणसिबजिदीङ्कष्यविभ्योनक । जिनोऽर्हन् । -सिद्धांत सूत्र ३०३ इसके अतिरिक्त मोहनजोदारू (सिन्ध ) की खुदाई में जो सीलें व सिक्के प्रात हुए हैं उनमें से कुछ पर 'नमो जिनेश्वराय' लिखा है । * तथा सिक्कों पर ध्यानस्थ भगवान ऋषभदेव की मूर्तियां व उनके नीचे बैल का चिह्न मौजूद है, जो जैन शास्त्रों में वर्णित लक्षणों से पूर्ण रूप में मिलता है और जिसे अजैन विद्वान प्रोफेसर चन्दा ने ऋषभदेव की मूर्ति स्वीकार किया है। यह स्मरण रखना चाहिये कि इन उपलब्ध सीलों व सिक्कों आदि सामग्री के सम्बन्ध में, जो कि मोहनजीदारू की खुदाई में प्राप्त हुई है, सभी पुरातत्वज्ञों ने उसे ५००० वर्ष की पुरानी स्वीकार किया है । इसलिये यह बात निर्विवाद है कि अब से ५००० वर्ष से भी पूर्व जैनधर्म का प्रकाश यहां पर सविशेष रूप से फैला हुआ था। * It may also be noted that the Inscrip. tion on the Indus seal No 449 reads according to my decipherment Jineshwara Jinesh. (Indian Historical quarterly Vol. VIII N. 2, sp. Dr. Prannath Vidyalankar). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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