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________________ जैन-धर्म [६६ ] “महमूद गजनवी अपने प्रत्येक आक्रमण के अवसर पर जो असंख्य, निरीह भारतीय नर नारियों का अति निर्दयता पूर्वक बध कर उनका धन, जन, सर्वस्व ले गया, उसमें उसका कुछ भी कसूर नहीं; क्योंकि उसने तो केवल ईश्वरीय व्यवस्थानुसार उन लोगों को अपने अपने पूर्व जन्मों के फल दिये (जब कि सुख, दुःख आदि कर्म फल का दाता ईश्वर है) यदि कहो कि वे नर नारी कर्म फल को दृष्टि से निर्दोष थे और ईश्वर के यहां से गजनवी को इस अत्याचार का दण्ड अवश्य मिलेगा, तो जगत पिता, परमदयालु दीनबन्धु, अशरण शरण, सर्वशक्तिमान् , घट घट व्यापी, न मालूम क्या २ कहलाने वाला तुम्हारा वह न्यायशील ईश्वर किस खरींटे की नींद सो रहा जो कि उसकी समझ मुबारक में “Prevention is better than cure" अर्थात बीमार को आराम कर देने से तो यही अच्छा है कि बीमारी होने ही न दी जाए—यह उत्तम नीति न आई, और उन दीन दुखियों की रक्षा का प्रबन्ध पहिले से ही नहीं किया ? वाह रे जगन्नियन्ता ! उसके देखते देखते २ इतने भारी कांड हो गये, पर उसने अपने कान भी नहीं फट फटाये !!"* इन दोषों के अतिरिक्त यदि हम ईश्वर को कर्म फल दाता स्वीकार भी करलें तो फिर यह प्रश्न उठता है कि सृष्टि की * श्री रजनीकान्त शास्त्री B. A. के एक लेख का कुछ अंश । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034859
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Dongariya Jain
PublisherNathuram Dongariya Jain
Publication Year1940
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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