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________________ ( ६३ ) 'सु' विशेषण लगाया जा सकता है, तथा यह पात्रता या सुपात्रता धर्मदान की अपेक्षा से ही है, और किसी अपेक्षा से नहीं। अन्य दानादि कार्य के लिए तो साधु अपात्र' है, और तेरह-पन्थियों के यहाँ तो सिर्फ सुपात्र तथा कुपात्र, ये दो भेद ही हैं, इसलिए उनके सिद्धान्तानुसार वे कुपात्र हैं। अब हम दूसरी तरह से यह बताते हैं कि यदि श्रावक कुपात्र है, तो श्रावक को कुपात्र कहने वाले भी कुपात्र ही हैं। यह बात दूसरी है कि श्रावक में कुपात्रता ज्यादा निकले, और साधु में कम निकले, परन्तु श्रावक को कुपात्र कहने वाले भी सुपात्र कभी नहीं हो सकते । मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग, ये पाँच भाव हैं। इन पाँचों आश्रवों को हम संख्या में १२३४५ मान लेते हैं। तेरह-पन्थी लोग आश्रव की अपेक्षा से ही श्रावक को कुपात्र कहते हैं, यह बात उनके कथन द्वारा ऊपर सिद्ध की जा चुकी है । मिथ्यात्व को तो साधु ने भी छोड़ दिया है और श्रावक ने भी छोड़ दिया है। बाकी २३४५ संख्या रही। इसमें से भव्रत नाम के श्राश्रव को साधु ने सर्वथा बन्द कर दिया है और श्रावक ने आंशिक बन्द किया है। इस प्रकार २३४५ संख्या में से साधनों ने २ का अंक सर्वथा उड़ा दिया है, और श्रावक ने उस दो के अंक को तोड़कर एक कर दिया है। शेष में साधु और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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