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________________ ( ६२ ) बन सकते हैं। श्री वीतराग सर्वज्ञ देव प्रणीत स्याद्वादमय नय निक्षेप आदि सापेक्ष मार्ग को समझने के लिए तो पात्र ही चाहिये । कुपात्रों के हाथ पड़ने से हो स्याद्वादमयी सापेक्ष वाणी का इस प्रकार उल्टा परिणमन हुआ है, क्योंकि तेरह-पन्य के सिद्धान्तानुसार इनके श्रावक और साधु होने से पहिले इनके बड़े बड़े आचार्य भी कुपात्रों की श्रेणी में ही थे। तब कुपात्र उस वाणी को सम्यक् प्रकार कैसे ग्रहण कर सकते हैं ? . तेरह-पन्थी साधु अपने आपको एकान्त रूप से सभी बातों के लिए सुपात्र कहते हैं, परन्तु उनका यह कथन भी सर्वथा झूठ है। क्या वे अनुकम्पादान, संग्रहदान, अभयदान, कारुण्यदान, लज्जादान, गौरवदान, अधर्मदान, करिष्यतिदान और कृतदान के लिए सुपात्र होना तो दूर रहा, पात्र भी हैं ? यदि नहीं, तो वे अपने आपको सर्वथा सुपात्र कैसे कहते हैं ? इन दोनों के लिए तेरह-पन्थी साधु, हमारी दृष्टि में अपात्र और तेरह-पन्य के सिद्धान्तानुसार कुपात्र हैं या नहीं ? धर्मदान के लिए भी साधु पात्र अवश्य हैं, किन्तु सभी साधु, वेषधारी धर्मदान के लिए भी सुपात्र नहीं हैं। 'सु' विशेषण यदि लगाया जा सकता है, तो इन थोड़े से साधुओं को ही, जो बड़ी तपस्याएं करते हैं, तथा मात्मदमन करते हैं। सभी साधु वेषधारियों के लिए 'सु' विशेषण नहीं लगाया जा सकता है, न तपस्वियों के लिए ही सर्वदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034858
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherBalchand Shrishrimal
Publication Year1942
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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