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तित
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अस और स्थावर जीक --
- समान नहीं हैं।
अब हम तेरहपन्थियों के उन सिद्धान्तों पर प्रकाश डालते हैं जिनके आधार पर तेरहपन्थी लोग प्राणी रक्षा तथा अनुकम्पा
करके दिये गये दान में पाप बताते हैं । यह तो बताया हो जा . चुका है कि साधु और श्रावक का आचार एक नहीं है। उनकी दूसरी दलील यह है, कि एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तक के जीव समान हैं । इसलिए एकेन्द्रियादिक जीवों की हिंसा करके पंचेन्द्रिय की रक्षा करना धर्म या पुण्य कैसे हो सकता है ? वे कहते हैं किजीव मारी जीव राखणा, सूत्र में नहीं हो भगवन्त बयन । ऊँधो पन्थ कुगुरु चलावियो, शुद्ध न सूझे हो फूटा अंतर नयन ॥
('अनुकम्पा' ढाल ७ वीं) अर्थात्-जीव मार कर जीव की रक्षा करने के लिए सूत्र में भगवान के कोई वचन नहीं हैं, किन्तु यह उल्टा मार्ग
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