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( १२ ) हिन्दू शब्द लिखा है वहां जैन शब्द ही समझने का है क्योंकि जैनाचार्य-जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरीजी के उपदेश से ही सम्राट ने अहिंसा स्वीकार की थी, और ऊपर ही० सं० ६६१ लिखा है वह ६६६ चाहिये, । और प्राइनेअकबरी पृ० ३३३१ में लिखा है कि रविवार और तहेवार के दिनों में पशुओं की हिंसा न करने को हुकम निकाले गये थे। (जै० सा० सं० इ० प० ५४९-५५०)
श्रीयुत् रामस्वामी ऐयंगर एम. ए. एल. टी. नामक एक अजैन विद्वान अकवर और जैनधर्म नामक लेख में लिखते हैं कि 'भानुचन्द्र महोपाध्याय थे, उन्होंने अकबर को सूर्य के सहस्त्र नाम सिखाये और ई. सन् १५६३ में अकबर से कई ऐसे फरमान लिखवाये जो जैन समाज के लिये बहुत ही उपयोगी थे। भानुचन्द्र के पश्चात (भानुचन्द्रजी भी लाहोर में ही थे तब ) विजयसेनसूरिजी को अकबर ने. लाहौर में आमंत्रण दिया। उन्होंने लाहौर में ३६३ विद्वान ब्राह्मणों को बाद में परास्त किया अकबर इससे बहुत संतुष्ट हुश्रा और उन्हें 'सवाई' की पदवी प्रदान की, उन्होंने भानुचन्द्रजी को वहीं उपाध्याय पद दिया। इस विधि के करने में ६०० रुपये व्यतीत हुये, यह सब खर्च अबुलफजल ने दियेथे। यह विश्वास किया जाता है कि भानुचन्द्रजी अकबर के अन्त समय तक उसके पास ही रहे थे। (अकबर जैनधर्म पृष्ट-१०)
श्री जगदगुरु जी महाराज के उपदेश से सम्राट अकबर ने जो अहिंसा पलवाई थी इनके अनेक प्रमाण मिलते हैं जिसमें से हमने थोड़े प्रमाण उध्धृत किये हैं किन्तु उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com