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हिमालय दिगदर्शन
इन लोगोंको जैन समाजकी ओरसे मणिभद्रपुर नामक ग्राम बसाकर इसी लिए रखने में आया था कि बद्रीका रास्ता एकदम पथरीला तथा घने जंगलोंसे घिरा हुआ व भया. वना होनेके कारण यात्रियों को वहां तक पहुंचनेमें तथा वहां रहनेमें एवम् यात्रा करने में किसी प्रकारकी असुविधा न हो तथा मंदिरोंकी रक्षा भली प्रकारसे हो सके। बादमें शंकराचार्यके घोर अत्याचारके कारण इन लोगोंको अपना धर्म भी छोड़ना पड़ा इतना ही नहीं वरन् मंदिरको भी शंकाचार्थके हाथोंमें सौंपना पड़ा।
उपरोक्त कारणसे यह प्रतिमा चतुर्भुज नारायणके नामसे प्रसिद्ध हुई, परन्तु यथार्थमें नारायणकी नही वरन् जैनियोंके तीर्थकर पार्श्वनाथकी है। इसका प्रमाण कि, इसके झूठे-झूठे फोटोओंसे प्रकट हो जाता है, क्योंकि किसी भी प्रचलित फोटोकी आकृति एक सरीखो नहीं है। इतना ही नहीं परन्तु किसी फोटोमें प्रतिमा पद्मासनवाली है तो किसिमें सिद्धासनवाली तथा सिद्धासनमें बायां पैर चढ़ा हुआ है तो किसी में दाहिना । यहां तक कि सभी प्रचलित फोटो काल्पनिक लिए गये हैं। इस प्रतिमाका असली फोटो मुझे वहीं पर एक जगहसे प्राप्त हुआ है । उसकी असली कापी आपको इस पुस्तकमें देखनेको प्राप्त होगी जिससे आप लोगोंको ज्ञात होगा कि यह प्रतिमा चतुर्भुज नारायणकी नहीं वरन् दो हाथवाली परिकर सहित पद्मासन बिराजित जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की है। मंदिर के चौकमें घंटाकर्णकी मूर्ति है जो कि बद्रीपुरीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com