________________ बरसे घन घोर घटा झरसें, झरसें धुनि बाढत दादरसें / दरसे बिन मित ब्रहा सरसें, सरसें दिन सागरजु परसें ॥ल. 42-22 // अंबरतें गिरतें धरतें सरतें, सरितें धुरवा जल धावें / आंखनतें तनतें मनतें असुबा. अरु स्वेद सनेह बढावे // दादुर मोरन सोरनतें, घन घोरनतें दरतेंजु बचावे / कंठ प्रबीन भुजा धरकें, भरिकें करि आसव पावस पावे ॥ल. 43.12 // पुत्री दीनी परमेसरको अमरेसरको इभ उत्तम दीनो / उत्तम अश्व दिनकरको अंरु शंकर को शशि अर्पन कीनो // देव सुधा ए सुरा लिय दानव मानव मोक्तिक आदिक लीनो। दैव रुठे न साहाय हुए ऋषिराज जबे रतनाकर पीनो // संपुट करी कर, मुष्टि करि, टीको करन संज्ञा करी / संकल्प संज्ञा, खुल्लि मुष्टि, बताइ निज कर गल धरी // द्रगमर्दनी संज्ञा करी, निज भाल पर धरि अंगुरी / यह अष्ट संज्ञा करि बतावत, इक सवैया उचरी / / ल.७६-१०॥ युं करिके कहुं तोकुं सखी, सब युं करिके रखनी यह बाता'। युं करिके कबु सागरकुं, पुनि युं करि मोकुं नदे पितु माता।। युं करही तुंही बात कबू, तब युं करि मोकुं हणे मुझ भ्राता। युं करिकें रहनां अबतो सखी, युं इनमें लिख लेख विधाताल:७६-११॥ [गुजराती-सखीनी उक्ति). कहे गूजराती तारी पीडा तो कळाती. नथी, मनमां मुंझाती दीले दूबळी देखाती छे / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com