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देव जगतेस धीर गुरुता गंभीर धरे -
भंजन बिपच्छ पच्छ दच्छ फौज फंद के । प्रभुता प्रकास अति रुप को निवास सोहैं
प्रगट प्रकास मेटैं जग दुख वृन्द के । मेघ से समुन्दर से पारथ पुरंदर से
रति पति सुंदर समान सूर चंद के ॥३॥
जदपि नार सुंदर सुघर दिपत न भूखन हीन | त्यों न अलंकृति बिनुलसैं कबिता सरस प्रबीन ॥४॥ कीने रसमय रसिक कवि सरस बढाय विवेक । छाया लहि गिरिबानकी भाषा ग्रंथ अनेक ॥५॥ तदपि अलंकृति ग्रन्थ को काहुँ कबि नहि कीन । भाषा भूखन है जउ कहुंक लच्छन हीन ॥ ६ ॥ यातै ताहि सुधारिके देखे कुवलयानंद | अलंकार रत्नाकर सुकिय कवि आनंद कंद ॥७॥ कहुं कहुं पहिले धरे उदाहरन सरसाथ । कहुं नये करि कैं धरे लच्छन लच्छ जताय ॥८॥ अरथ कुवलयानंदको बांढयो दलपतिराय । बंशीधर कवि पैं धरें कहुं कहुं कबित बनाय ॥ ९ ॥ मेदपाठ श्रीमाल कुल विप्र महाजन काय । बासी अमदाबादके बंशी दलपतिराय ॥ १० ॥
अस४२–२त्नाङ२भां भशवंतसिंह महारानना मनावेसा भाषाસૂષળની એક પ્રકારની ટીકાજ લખી છે. આ ગ્રંથમાં વિયેાએ
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