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________________ [ ७८] 'कयों पर ध्यान देते, उन्होंने इधर उधर से ग्रंथ का संग्रह किया है और इसलिये उसमें बहुतसी पुनरुक्तियाँ हो गई हैं । उदाहरण के लेये इसी अध्याय को लीजिये, इसके तीसरे पद्य में आप विवाहयोग्य न्या का विशेषण 'अन्यगोत्रभवा देते हैं और उक्त पद्य नं० ३६ । 'अन्यगोत्रजा' लिखते हैं, दोनों में कौनसा अर्थ-भेद है ? फिर यह पुनरुक्ति क्यों की गई ? इसी तरह पर १६०वें पद्य में 'ऊर्ध्व विवाहात्तनयस्य नैव कार्यों विवाहो दुहितुः समाधम्' इस वाक्य के द्वारा जो 'पुत्र विवाह से छह महीने बाद तक पुत्री का विवाह न करने की बात कही गई है वही १९२वें पद्य में 'न पुविवाहोलमृतुत्रयेऽपि विवाहकार्य दुहितुश्च कुर्यात्' इन शब्दों में दोहराई गई है। ऐसी हालत में उक्त हेतु साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ है । फिर भी यदि वैसे ही यह मान लिया जाय कि भट्टारकजी का आशय इस पद्य के प्रयोग से अपनी अपनी उपजाति की कन्या से ही था तो कहना होगा कि आपका यह कथन भी श्रादिपुराण के विरुद्ध है; क्योंकि प्रादिपुराण में विद्याधर जाति की कन्याओं से ही नहीं किन्तु म्लेच्छ जाति जैसी विजातीय कन्याओं से भी विवाह करने का विधान हैस्वयं भरतजी महाराज ने, जो श्रादिपुराण-वर्णित बहुत से विधिविधानों के उपदेष्टा हुए हैं और एक प्रकार से 'कुलकर' माने गये हैं, ऐसी बहुतसी कन्याओं के साथ विवाह किया है; जैसाकि श्रादिपु. राण के निम्न पद्यों से प्रकट है इत्युपायरुषायज्ञः साधयम्लेच्छभूभुजः । तेभ्यः कन्यादिरत्नानि प्रभो ग्यान्युपाहरत् ॥ २१-१४१ ॥ कुलजात्यभिसम्पन्ना देव्यस्तावत्यमा स्मृताः । रूपलावण्यकान्तीनां याः शुद्धाकरभूमयः ॥ ३७-३४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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