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________________ [६] क्रियोपनीतिनामाऽस्य वर्षे गर्भाटमे मता। यत्रापनीतकेशस्य मौजी सव्रतबन्धना ॥ १८-१०४ ॥ और यह बात जननीति के भी विरुद्ध है कि जिन ले.गों का उक्त मर्यादा के भीतर उपनयन संस्थार न हुआ है। उन्हें सर्व धर्मकृत्यों से बहिष्कृत और वंचित किया जाय अथवा धर्म-सेवन के उनके सभी अधिकारों को छीन लिया जाय । जैनधर्म का ऐमा न्याय नहीं है और न उसमें उपनयन संस्कार को इतना गहत्व ही दिया गया है कि उसके बिना किसी भी धर्म कर्म के करने का कोई अधिकारी ही न रहे । उसमें धर्मसेवन के अनेक मार्ग बतलाये गये हैं. जिनमें उपनयनसंस्कार भी एक मार्ग है अथवा एक गार्ग में दाखिल है । जैनी बिना यज्ञोपवीत संस्कार के भी पूजन, दान, स्वाध्याय, तप और संयम जैसे धर्मकृत्यों का आचरण कर सकते हैं, करते हैं और करते आए है; श्रावक के बारह व्रतों का भी वे खंडश: अथवा पूर्णरूप से पालन कर सकते हैं और अन्त में सल्लेखना व्रत का भी अनुष्ठान कर सकते हैं । प्रतिष्ठाकार्यों में भी बड़े बड़े प्रतिष्टाचायों द्वारा ऐसे लोगों की नियुक्ति देखी जाती है जिनका उक्त मर्यादा के भीतर यज्ञोपवीत संस्कार नहीं दुधा होता । यदि उक्त मर्यादा से ऊपर का कोई भी अजैन जैनधर्म की शरण में पाए तो जैनधर्म उसका यह कह कर कभी त्याग नहीं कर सकता कि 'मर्यादा के भीतर तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुआ इसलिये अब तुग इस धर्म को धारण तथा पालन करने के अधिकारी नहीं रहे' । ऐसा कहना और करना उसकी नीति तथा सिद्धान्त के विरुद्ध है । वह खुशी से उसे अपनाएगा, अपनी दीक्षा देगा और जरूरत समझेगा तो उसके लिये यज्ञोपवीत का भी विधान करेगा। इसी तरह पर एक जैनी, जो उक्त मर्यादा तक अक्ती अथवा धर्म कर्म से पराङ्मुख रहा हो, अपनी भूल को मालूम करके श्रावकादि के व्रत सेना चाहे तो जैनधर्म उसके लिये भी यथायोग्य व्यवस्था करेगा । उसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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