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________________ ३ – सारत्रयके प्रसिद्ध टीकाकार श्री जयसेनसूरिके कथनानुसार सत्-शूद्र भी मुनिदीक्षा ले सकते हैं * । परन्तु वर्तमान जैनधर्म तो शुद्धों को इसके लिए सर्वथा अयोग्य समझता है । शूद्र तो खैर बहुत नीची दृष्टिसे देखे जाते हैं; परन्तु उन दक्षिणी जैनियों के भी मुनिदीक्षा लेने पर कोलाहल मचाया जाता है जिनके यहाँ विधवाविवाह होता है । उदार जैनधर्मपर इस प्रकारकी विकृतियाँ क्या लाञ्छनस्वरूप नहीं हैं ? जैसा कि प्रारंभ में कहा जा चुका है, इन विकृतियोंको पहिचान करके असली धर्मको प्रकाशमें लानेवाली विभूतियाँ समय समय पर होती रहती हैं । सारत्रयके कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द ऐसी ही विभूतियोंमें से एक थे । वर्तमान दिगम्बर संप्रदाय के अधिकांश लोग अपनेको कुन्दकुन्दकी आम्नायका बतलाते हैं । मालूम नहीं, लोगोंका कुन्दकुन्दाम्नाय और कुन्दकुन्दान्वय के सम्बन्धमें क्या खयाल है; परन्तु मैं तो इसे जैनधर्म में उस समय तक जो विकृतियाँ हो गई थीं उन सबको हटाकर उसके वास्तविक स्वरूपको आविष्कृत करके सर्व साधारणके समक्ष उपस्थित करनेवाले एक महान् आचार्यके अनुयायियोंका सम्प्रदाय समझता हूँ । भगवान् कुन्दकुन्दके पहले और पीछे अनेक बड़े बड़े आचार्य हो गये हैं, उनकी आम्नाय या अन्वय न कहलाकर कुन्दकुन्दकी ही आम्नाय या अन्वय कहलानेका अन्यथा कोई बलवत्कारण दृष्टिगोचर नहीं होता है । मेरा अनुमान है कि भगवत्कुन्दकुन्दके समय तक जैनधर्म लगभग उतना ही विकृत हो गया था, जितना वर्तमान तेरहपन्थके उदय होनेके पहले भट्टारकों के शासन- समय में हो गया था और उन विकृतियोंसे मुक्त करनेवाले तथा जैनधर्मके परम वीतराग शान्त मार्गको फिरसे प्रवर्तित करनेवाले भगवान् कोण्डकुण्ड ही थे । परन्तु समयका प्रभाव देखिए कि वह संशोधित शान्तमार्ग भी चिरकाल तक शुद्ध न रहा, आगे चलकर वही भट्टारकों का धर्म बन गया । कहाँ तो तिल-तुष मात्र परिग्रह रखनेका भी निषेध और कहाँ हाथी घोड़े और पालकियों के ठाठवाट ! घोर परिवर्तन हो गया ! I जब कुन्दकुन्दान्वयी शुद्ध मार्ग धीरे धीरे इतना विकृत हो गया — विकृतिकी पराकाष्ठापर पहुँच गया, तब कुछ विवेकी और विश्लेषक विद्वानोंका ध्यान फिर इस ओर गया और जैसा कि मैंने अपने ' वनवासियों और चैत्यवासियोंके सम्प्रदाय या तेरह - पन्थ और बीसपन्थ ' + शीर्षक विस्तृत लेखमें बतलाया है, विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दिमें स्वर्गीय पं० बनारसीदासजी ने फिर एक संशोधित और परिष्कृत मार्गकी नीव डाली, जो पहले ' वाणारसीय ' या ' बनारसी- पन्थ ' कहलाया और आगे चल कर तेरहपन्थ के ... * . एवं गुणविशिष्टपुरुषो जिनदीक्षाग्रहणे योग्यो भवति । यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि - प्रवचनसारतात्पर्यवृत्ति, पृष्ठ ३०५ । + देखो, जैनहितषी भाग १४, अंक ४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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