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[ ६४ ] इतः प्रभृति चाभ्यूह्यास्ते यथाम्नायमग्रजैः ॥ २१७ ॥ मंत्रानिमान्यथा योग्यं यः क्रियासु विनियोजयेत् । स लोके सम्मतिं याति युक्ताचारो द्विजोत्तम् : ॥ २१८ ॥
-४० वाँ पर्व। इन वाक्यों से आदिपुराण-वर्णित मंत्रों का खास तौर से महत्व पाया जाता है और यह मालूम होता है कि वे जैन आम्नायानुसार खसूसियत के साथ इन क्रियाओं के मंत्र हैं । गणधर-रचित सूत्र (उपासकाध्ययन) अथवा परमागम में उन्हें 'साधनमंत्र' कहा है-क्रियाएँ उनके द्वारा सिद्ध होती हैं ऐसा प्रतिपादन किया है-और इसलिये सब क्रियाओं में उनका यथायोग्य विनियोग होना चाहिये । एक दूसरी जगह भी इस विनियोग की प्रेरणा करते हुए लिखा है कि 'जैनमत' में इन मंत्रों का सब कियाओं में विनियोग माना गया है, अतः श्रावकों को चाहिये कि वे व्यामोह अथवा भ्रम छोड़ कर-नि:संदेह रूप से-इन मंत्रों का सर्वत्र प्रयोग करें। यथाः--
विनियोगस्तु सर्वासु क्रियास्वेषां मतो जिनैः ।
श्रव्यामोहादतस्तज्ज्ञैः प्रयोज्यास्त उपासकैः ॥ ३८-७५ ॥ परन्तु, यह सब कुछ होते हुए भी, भट्टारकजी ने इन दोनों प्रकार के सनातन और यथाम्नाय + मंत्रों में से किसी भी प्रकार के मंत्र का यहाँ * प्रयोग
+ श्रादिपुराण में 'तन्मंत्रास्तु यथाम्नायं ' श्रादि पा के द्वारा इन मंत्रों को जैन आम्नाय के मंत्र बतलाया है । ____ * पाँचवें अध्याय में, नित्यपूजन के मंत्रों का विधान करते, हुए, सिर्फ एक प्रकार के पीठिका मंत्र दिये हैं परन्तु उन्हें भी उनके असली रूप में नहीं दिया-बदलकर रक्खा है-सब मंत्रों के शुरू में ऊँ जोड़ा गया है और कितनेही मंत्रों में 'नमः' श्रादि शब्दों के द्वित्व प्रयोग की जगह एकत्व का प्रयोग किया गया है । इसी तरह और भी कुछ न्यूना. धिकता की गई है । श्रादिपुराण के मंत्र जंचे तुले श्लोकों में बद्ध हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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