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________________ [ ५६ ] क्रियाओं को भी मिथ्या क्रियाएँ समझना चाहिये। मालूम होता है कुछ विद्वानों ने दूसरों की इन क्रियाओं को किसी तरह पर अपने ग्रंथों में अपनाया हैं और भट्टारकजी ने उन्हीं में से किसी का यह अंधा ऽनुकरण किया है। अन्यथा, आपकी तेतीस क्रियाओं से इनका कोई सम्बंध नहीं था । (घ) त्रिवर्णाचार में, निर्धन के लिये, गर्भाधान, प्रमोद, सीमंत और पुंसवन नाम की चार क्रियाओं को एक साथ १ वें महीने करने का भी विधान किया गया है । यथा: - गर्भाधानं प्रमोदश्व सीमन्तः पुंसवं तथा । नवमे मासि चैकत्र कुर्यात्सर्वतु निर्धनः ॥ ८० ॥ यह कथन भी भगवज्जिनसेनाचार्य के विरुद्ध है -- आदिपुराण में गर्भाधान और प्रमोद नाम की क्रियाओं को एक साथ करने का विधान ही नहीं । यहाँ 'गर्भाधान' क्रिया का, जिसमें भट्टारकजी ने स्त्रीसंभोग का खासतौर से तफ़सीलवार विधान किया है, वें महीने किया जाना बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है और एक प्रकार का पाखण्ड मालूम होता है । उस समय भट्टारकजी के उस 'कामयज्ञ' का रचाया जाना जिसका कुछ परिचय श्रागे चल कर दिया जायगा, निःसन्देह, एक बड़ा ही पाप कार्य है और किसी तरह भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । स्वयं भट्टारकजी के 'मासात्तु पंचमादूर्ध्वं तस्याः संगं विवर्जयेत्' इस वाक्य से भी उसका विरोध याता है, जिसमें लिखा है कि 'पाँचवें महीने के बाद गर्भिणी स्त्री का संग छोड देना चाहिये - उससे भोग नहीं करना चाहिये' । और वैसे भी गर्भ रह जाने के आठ नौ महीने बाद 'गर्भाधान' क्रिया का किया जाना महज एक दौंग रह जाता है, जो सत्पुरुषों द्वारा आदर किये जाने के योग्य नहीं । भट्टारकजी निर्धनों के लिये ऐसे ढौंग का विधान करते हैं, यह आपकी बड़ी ही विचित्र लीला अथवा परोपकार बुद्धि है ! आपकी राय में शायद ये गर्भापान आदि की क्रियाएँ विपुलधन - साध्य हैं और उन्हें धनवान लोग ही कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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