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________________ [ ५३ ] क्रिया गर्भादिका यास्ता निर्वाणान्ता पुरोदिताः। माधानादि श्मशानान्ता न ताः सम्यक् क्रियामताः ॥२५॥ -३६ वाँ पर्व । और इसलिये भट्टारकजी की 'पिण्डदान' तथा 'श्राद्ध' आदि नाम की उक्त क्रियाओं को भगवजिनसेनाचार्य के केवल विरुद्ध ही न समझना चाहिये बल्कि 'मिथ्या क्रियाएँ भी मानना चाहिये । (ख) अपनी उद्दिष्ट क्रियाओं का कथन करते हुए, भट्टारकजी ने गर्भाधान के बाद प्रीति, सुप्रीति, और धृति नाम की क्रियाओं का कोई कथन नहीं किया, जिन्हें आदिपुराण में क्रमशः तीसरे, पाँचवें और सातवें महीने करने का विधान किया है, बल्कि एकदम 'मोद' क्रिया का वर्णन दिया है और उसे तीसरे महीने करना लिखा है । यथाः गर्भेस्थिरऽथ संजाते मासे तृतीयके ध्रुवम् । प्रमोदेनैव संस्कार्यः क्रियामुख्यः प्रमोदकः ॥ ५ ॥ परन्तु आदिपुराण में 'नवमे मास्यतोऽभ्यणे मोदोनाम क्रियाविधिः' इस वाक्य के द्वारा 'मोद' क्रिया 1 वें महीने करनी लिखी है । और इसलिये भट्टारकजी का कथन आदिपुराण के विरुद्ध है। यहाँ पर इतना और भी बतला देना उचित मालूम होता है कि भट्टारकजी ने 'प्रीति' और 'मुप्रीति' नामकी क्रियाओं को 'प्रियोद्भव' क्रिया के साथ पुत्रजन्म के बाद करना लिखा है* । और साथ ही, सज्जनों में उत्कृष्ट प्रीति करने को 'प्रीति', पुत्र में प्रीति करने को 'सुप्रीति' और देवों में महान् उत्साह फैलाने को 'प्रियोद्भव' क्रिया बतलाया है। यथा: * 'घृति' क्रिया के कथन को भाप यही मी छोड़ गये हैं और उसका वर्णन ग्रंथ भर में कहीं भी नहीं किया। इसी तरह तीर्थयात्रा' मादि और भी कुछ क्रियाओं के कथन को आप बिलकुल ही छोड़ गये प्रथम भुला गये हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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