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[ ४८ ] दूसरों के प्रयोगों को बदल कर रखने की जरूरत नहीं समझता और न अपने को उसका अधिकारी ही मानता है । सोममनजी की स्थिति ग्रंथ पर से ऐसी मालूम नहीं होती, वे इस विषय में प्राय: कुछ भी सावधान नजर नहीं आते. उन्होंने सैकड़ों पुरातन पद्यों को बिना ज़रूरत ही बदल डाला है और जिन पद्यों को ज्यों का त्यों उठाकर रक्खा है उनके विषय में प्रायः कोई सूचना ऐसी नहीं कि जिससे वे दूसरे विद्वानों के वाक्य समझे जाँय । साथ ही, ग्रंथ की रचना-प्रणाली भी ऐसी मालूम नही होती जिसे प्रायः 'प्रयोगंवाद' की नीतिका अनुसरण करने वाली कहा जा सके * । ऐसी हालत में इस पद्य द्वारा जिन बातों की सूचना की गई है वे काव्य चोरी के उक्त कलंक को दूर करने के लिये किसी तरह भी समर्थ नहीं हो सकती। उन्हें प्राय: दौंग मात्र समझना चाहिये अथवा यों कहना चाहिये कि वे पीछे से कुछ शर्म सी उतारने अथवा अपने दुष्कर्म पर एक प्रकार का पर्दा डालने के लिये ही लिखी गई हैं ! अन्यथा, विद्वानों के समक्ष उनका कुछ भी मूल्य नहीं है।
*ग्रन्थ में एक जगह कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदितिगालवः' ऐसा लिखा है । यह वाक्य बेशक प्रयोगवद की नीति का अनुसरण करने वाला है-इसमें 'गालव ऋषि के वाक्य का उनके नाम के साथ उल्लेख है । यदि सारा ग्रन्थ अथवा ग्रन्थ का अधिकांश भाग इस तरह से भी लिखा जाता तो वह प्रयोगंवर की नीति का एक अच्छा अनुसरण कहलाता। और तब किसी को उपर्युक्त आपत्ति का अवसर ही न रहता। परन्तु ग्रन्थ में, दो चार उदाहरणों को छोड़कर, इस प्रकार की रचना का प्रायः सर्वत्र अभाव है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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