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कि ढाई हजार वर्षके इतने लम्बे समयमें, इतने संघों और गण-गच्छोंकी खींचातानीमें पड़ कर भी उनके द्वारा भगवान्के धर्ममें जरा भी रूपान्तर नहीं हुआ है।
हमारे समाजके विद्वान् तो अभी तक यह माननेको भी तैयार नहीं थे कि जैनाचार्यों में भी परस्पर कुछ मतभेद हो सकते हैं । यदि कहीं कोई ऐसे भेद नजर आते थे, तो वे उन्हें अपेक्षाओंकी सहायतासे या उपचार आदि कह कर टाल देते थे; परन्तु अब 'ग्रन्थपरीक्षा'के लेखक पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपनी सुचिन्तित और सुपरीक्षित 'जैनाचार्योंका शासनभेद' * नामकी लेखमालामें इस बातको अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है कि जैनाचार्यों में भी काफी मतभेद थे, जो यह विश्वास करनेके लिए पर्याप्त हैं कि भगवानका धर्म शुरूसे अब तक ज्योंका त्यों नहीं चला आया है और उसके असली रूपके सम्बन्धमें मतभेद हो सकता है।
संसारके प्रायः सभी धर्मों में रूपान्तर हुए हैं और बराबर होते रहते हैं । उदाहरणके लिए पहले हिन्दू धर्मको ही ले लीजिए। बड़े बड़े विद्वान् इस बातको स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म और बौद्धधर्मके जबर्दस्त प्रभावोंमें पड़कर उसकी वैदिकी हिंसा' लुप्तप्राय हो गई है और वैदिक समय में जिस गौके बछड़े के मांससे ब्राह्मणोंका अतिथिसत्कार किया जाता था, (महोजं वा महोक्षं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत् ) वही आज हिन्दु
ओंकी पूजनीया माता है और वर्तमान हिन्दू धर्ममें गोहत्या महापातक गिना जाता है। हिन्दू अब अपने प्राचीन धर्मग्रन्थों में बतलाई हुई नियोगकी प्रथाको व्यभिचार और अनुलोम-प्रतिलोम विवाहोंको अनाचार समझते हैं। जिस बौद्धधर्मने संसारसे जीवहिंसाको उठा देनेके लिए प्रबल आन्दोलन किया था, उसीके अनुयायी तिब्बत और चीनके निवासी आज सर्वभक्षी बने हुए हैं-चूहे छछूदर, कीड़े व मकोड़े तक उनके लिए अखाद्य नहीं हैं ! महात्मा बुद्ध नीच ऊँचके भेदभावसे युक्त वर्णव्यवस्थाके परम विरोधी थे; परन्तु आज उनके नेपालदेशवासी अनुयायी हिन्दुओंके ही समान जातिभेदके रोगसे ग्रसित हैं ! महात्मा कबीर जीवन भर इस अध्यात्मवाणीको सुनाते रहे कि
जात पाँत पूछे नहिं कोई,
हरिको भजै सो हरिका होई । परन्तु आज उनके लाखों अनुयायी जातिपाँतिके कीचड़में अपने अन्य पड़ौसियोंके ही समान फँसे हुए हैं। इस ऊँच-नीचके भेदभावकी बीमारीसे तो सुदूर यूरोपसे आया हुआ ईसाई धर्म भी नहीं बच सका है। पाठकोंने सुना होगा कि मद्रास प्रान्तमें ब्राह्मण ईसाइयोंके गिरजाघर जुदा और शूद्र ईसाइयोंके गिरिजाधर जुदा हैं और वे एक दूसरेको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं। ऐसी दशामें यदि हमारे जैनधर्ममें देशकालके प्रभा
* यह लेखमाला अब मुख्तारसाहबके द्वारा संशोधित और परिवर्द्धित होकर जैनप्रन्थरत्नाकर कार्यालय बम्बईद्वारा पुस्तकाकार प्रकाशित हो गई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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