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[४] मूचनाओं के द्वारा जो यह विश्वास दिलाया था कि ' उसने इस ग्रंथ में जो कुछ लिखा है वह उक्त जिनसेनादि छहों विद्वानों के ग्रंथानुसार लिखा है और जहाँ कहीं दूसरे विद्वानों के ग्रंथानुसार कुछ कथन किया है वहाँ पर उन विद्वानों का अथवा उनके ग्रंथों का नाम दे दिया है। वह एक प्रकार का धोग्वा है । ग्रंथकार महाशय (भट्टारकजी ) अपनी प्रतिज्ञाओं तथा सूचनाओं का पूरी तौर से निर्वाह नहीं कर सके और न वैसा करना उन्हे इष्ट था, ऐसा जान पड़ता है- उन्होने दो चार अपवादों को छोड़ कर कहीं भी दूसरे विद्वानों का या उनके ग्रंथों का नाम नहीं दिया और न ग्रंथ का सारा कथन ही उन जैन विद्वानों के वाक्यानुसार किया है जिनके ग्रंथों को देख कर कथन करने की प्रतिज्ञाएँ की गई थीं; बल्कि बहुतसा कथन अजैन ग्रंथों के आधार पर, उनके वाक्यों तक को उद्धृत करके, किया है जिनके अनुसार कथन करने की कोई प्रतिज्ञा नहीं की गई थी। और इसलिये यह कहना कि ' भट्टारकजी ने जान बूझ कर अपनी प्रतिज्ञाओं का विरोध किया है और उसके द्वारा पबलिक को धोखा दिया है ' कुछ भी अनुचित न होगा । इस प्रकार के विरोध तथा धोखे का कुछ और भी स्पष्टीकरण प्रतिज्ञादि-विरोध ' नाम के एक अलग शीर्षक के नीचे किया जावेगा ।
यहाँ पर मैं सिर्फ इतना और बतला देना चाहता हूँ कि गट्टारकजी ने दूसरे विद्वानों के ग्रंथों से जो यह बिना नाम धाम का भारी संग्रह करके उसे अपने ग्रंथों में निबद्ध किया है-' उक्तं च * श्रादि रूप से भी नहीं रक्खा-और इस तरह पर दूसरे विद्वानों की कृतियों को अपनी कृति अथवा रचना प्रकट करने का साहस किया है वह
* ग्रंथ में दस पाँच पद्यों को जो 'उक्तं च ' मादि कप से दे रखा
का यहाँ पर प्राण नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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