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________________ [ २२ ] दोनों में परस्पर कितना अन्तर है और उससे प्रतिज्ञा में कहाँतक विरोध श्राता है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इस अध्याय में और भी कितने ही कथन ऐसे हैं जो ज्ञानार्णव के अनुकूल नहीं हैं। उनमें से कुछ का परिचय आगे चलकर यथास्थान दिया जायगा। (३) एकसंधि भट्टारक की । जिनसंहिता' से भी कितने ही पद्यादिकों का संग्रह किया गया है और उन्हें प्रायः ज्यों का त्यों अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर अनेक स्थानों पर रक्खा गया है। चौथे अध्याय में ऐसे जिन पद्यों का संग्रह किया गया है उनमें से दो पद्य नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं तीर्थकृद्णभच्छेषकेवल्यन्तमहोत्सवे । प्राप्य ये पूजनाङ्गत्वं पवित्रत्वमुपागताः ॥ ११५ ।। ते त्रयोपि प्रणेतव्याः कुण्डेष्वेषु महानयम् । गाई पत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्धया ॥ ११६ ।। भाषा-टीका का 'अनुकरण मात्र' लिखा है, 'चतुर्थ' का अर्थ अनेक स्थानों पर 'उपवास' दिया है। और प्रायश्चित ग्रंथों से तो यह बात और भी स्पष्ट है कि 'चतुर्थ' का अर्थ 'उपवास' है; जैसाकि प्रायश्चित्त चूलिका' की श्रीनन्दिगुरुकृत टीका के निम्न वाक्यों से प्रकट है 'त्रिचतुर्थानि त्रीणि चतुर्थानि त्रय उपवासा इत्यर्थः ।' 'चतुर्थ उपवासः' । इससे सोनीजी की भूल स्पष्ट है और उसे इसलिये स्पष्ट किया गया है जिससे मेरे उक्त लिखने में किसी को भ्रम न हो सके। अन्यथा, उनके अनुवादकी भूलें दिखलाना यहाँ इष्ट नहीं है, भूलों से तो सारा अनुवाद भरा पड़ा है-कोई भी ऐसा पृष्ठ नहीं जिसमें अनुवाद की दसपाँच भूलें न हों-उन्हें कहाँतक दिखलाया जा सकता है । हाँ, मेरे लेखके विषय से जिन भूलोका खास अथवा गहरा सम्बन्ध होगा उन्हें यथावसर स्पष्ट किया जायगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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