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________________ २५३ इस पद्यमें अमितगति आचार्य, अपनी लघुता प्रकट करते हुए, लिखते हैं कि'जो धर्म गणधर देवके द्वारा परीक्षा किया गया है वह मुझ जडात्मासे कैसे परीक्षा किया जासकता है ? जिस वृक्षको गजराज तोड़ डालनेमें समर्थ है क्या उसे शशक भंग कर सकता है ? ' इसके बाद दूसरे पद्यमें लिखा है - 'परन्तु विद्वान् मुनीश्वरोंने जिस धर्ममें प्रवेश करके उसके प्रवेशमार्गको सरल कर दिया है उसमें मुझ जैसे मूर्खका प्रवेश हो सकता है; क्योंकि वज्रसूचीसे छिद्र किये जाने पर मुक्तामणिमें सूतका नरम डोरा भी प्रवेश करते देखा जाता है ।' पाठकगण देखा, कैसी अच्छी उक्ति और कितना नम्रतामय भाव है । कहाँ मूलकर्ताका यह भाव, और कहाँ उसको चुराकर अपनी कृति बनानेवालेका उपर्युक्त अहंकार ! मैं समझता हूँ यदि पद्मसागरजी इसी प्रकारका कोई नम्र भाव प्रगट करते तो उनकी शानमें कुछ भी फर्क न आता । परन्तु मालूम होता है कि आपमें इतनी भी उदारता नहीं थी और तभी आपने, साधु होते हुए भी, दूसरोंकी कृतिको अपनी कृति बनानेरूप यह असाधु कार्य किया है !! इसी तरह पर और भी कितने ही प्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जाली तथा अर्धजाली पाए जाते हैं, जिन सबकी जाँच, परीक्षा तथा समालोचना होनेकी ज़रूरत है । श्वे० सम्प्रदायके निष्पक्ष विद्वानोंको आगे आकर इसके लिये खास परिश्रम करना चाहिये और वैसे ग्रन्थोंके विषयमें यथार्थ वस्तुस्थितिको समाजके सामने रखना चाहिये । ऐसा किया जाने पर विचारस्वातंत्र्य फैलेगा, विवेक जागृत होगा और वह साम्प्रदायिकता तथा अन्धी श्रद्धा दूर हो सकेगी जो जैम समाजकी प्रगतिको रोके हुए है । इत्यलम् । बम्बई । ता० ८ अगस्त सन् १९१७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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