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________________ २५१ लोहे की कीलें खींचकर निकालीं; चंदनादिकके लेपसे उसे सचेत किया और उसके घावोंको अपनी मुद्रिकाके रत्नजलसे धोकर अच्छा किया। इस उपकारके बदले में विद्याघरने पांडुको, उसकी चिन्ता मालूम कर के, अपनी एक अंगूठी दी और कहा कि, यह अंगूठी स्मरण मात्रसे सब मनोवांछित कार्योंको सिद्ध करनेवाली है, इसमें अदृश्यीकरण आदि अनेक महान् गुण हैं । पाण्डुने घरपर आकर उस अंगूठीसे प्रार्थना की कि ' है अंगूठी ! मुझे कुन्ती के पास ले चल' अंगूठीने उसे कुन्तीके पास पहुँचा दिया । उस समय कुन्ती, यह मालुम करके कि उसका विवाह पाण्डुके साथ नहीं होता है, गलेमें फाँसी डालकर मरनेके लिए अपने उपवनमें एक अशोक वृक्षके नीचे लटक रही थी । पांडुने वहाँ पहुँचते ही गलेसे उसकी फाँसी काट डाली और कुन्तीके सचेत तथा परिचित हो जानेपर उसके साथ भोग किया । उस एक ही दिनके भोगसे कुन्तीको गर्भ रह गया। बालकका जन्म होने पर धात्रीकी सम्मतिसे कुन्तीने उसे मंजूषामें रखकर गंगामें बहा दिया । कुन्तीकी माताको, कुन्तीकी आकृति आदि देखकर, पूछने पर पीछेसे इस कृत्यकी खबर हुई । वह मंजूषा ' अतिरथि' नामके एक सारथिको मिला, जिसने बालकको उसमेंसे निकालकर उसका नाम 'कर्ण' रक्खा । चूंकि उस सारथिकी स्त्रीको, मंजूषा मिलेनेके उसी दिन प्रातः काल, स्वप्न में आकर सूर्यने यह कहा था कि हे वत्स ! आज तुझे एक उत्तम पुत्र की प्राप्ति होगी । इस लिए सूर्यका दिया हुआ होनेसे बालकका दूसरा नाम सूर्यपुत्र भी रक्खा गया । I श्वेताम्बरीय पांडवचरित्रके इस संपूर्ण कथनसे पद्मसागरजीके पूर्वोक्त कथनका कहाँतक मेल है और वह कितना सिरसे पैर तक विलक्षण है, इसे पाठकों को बतलाने की ज़रूरत नहीं है । वे एक नजर डालते ही दोनोंकी विभिन्नता मालूम कर सकते है अस्तु; इसी प्रकारके और भी अनेक कथन इस धर्मपरीक्षामें पाए जाते हैं जो दिगम्बरशास्त्रोंके अनुकूल तथा श्वेताम्बर शास्त्रोंके प्रतिकूल हैं और जिनसे ग्रंथकर्ताकी साफ़ चोरी पकड़ी जाती है । ऊपरके इन सब विरुद्ध कथनोंसे पाठकोंके हृदयोंमें आश्चर्यके साथ यह प्रश्न उत्पन्न हुए बिना नहीं रहेगा कि 'जब गणीजी महाराज एक दिगम्बरप्रंथको श्वेताम्बरप्रय बनाने के लिए प्रस्तुत हुए थे. तब आपने श्वेतांबरशास्त्रोंके विरुद्ध इतने अधिक कथनोको उसमें क्यों रहने दिया ? क्यों उन्हें दूसरे कथनोंकी समान, जिनका दिग्दर्शन इस लेखके शुरू कराया गया है, महीं निकाल दिया या नहीं बदल दिया ? उत्तर इस प्रश्नका सीधा सादा मही हो सकता है कि या तो गणीजीको श्वेताम्बरसम्प्रदाय के प्रन्थों पर पूरी श्रद्धा नहीं थी, अथवा उन्हें उच्च सम्प्रदायके प्रन्योंका अच्छा ज्ञान नहीं था। इन दोनों बातोंमैसे पहली बात बहुत कुछ संदिग्ध मालूम होती है और उसपर प्रायः विश्वास नहीं किया जा सकता । क्योंकि गणीजीकी यह कृति ही उनकी श्वेताम्बर सम्प्रदाय-भक्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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