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________________ [२३३] कैसे करूँ? इसकी अपेचा तो जोवस्तु पिताजीको प्रिय थी वही करूँगा। गीता का पारायण तीन दिन करूँगा और तीनों दिन १२ घण्टे रोज़ चर्वा चलाऊँगा"। -हि. नव. ___ परंतु हमारे सोनीजी, जैन पंडित होकर भी, अभीतक लकीर के फकीर बने हुए हैं, 'बाबाबाक्यं प्रमाणं' की नीति का अनुसरण करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं और लोगों को 'अन्धश्रद्धालु' बनने तथा बने रहने का उपदेश देते हैं, यह बड़ा ही आश्वर्य है !! उन्हें कम से कम केशव भाई के इस उदाहरण से ही कुछ शिक्षा लेनी चाहिये । मेरा विचार था कि मैं और भी कुछ विरुद्ध कथनों को दिखलाऊँ, विरुद्ध कथनों के कितने ही शीर्षक नोट किये हुए पड़े हैं-खासकर 'त्रिवर्णाचार के पूज्य देवता' शीर्षक के नीचे मैं कुदेवों की पूजा को दिखला कर उसकी विस्तृत आलोचना करना चाहता था परंतु उसके लिये लम्बा लिखने की जरूरत थी और लेख बहुत बढ़गया है इसलिये उस विचार को भी छोड़ना ही पड़ा । मैं समझता हूँ विरुद्ध कथनों का यह सब दिग्दर्शन काफ़ी से भी ज़्यादा हो गया है और इसलिये इतने पर ही सन्तोष किया जाता है । इन सब विरुद्ध कथनों के मौजूद होते हुए और अजैन विषयों तथा वाक्यों के इतने भारी संग्रहकी उपस्थिति में--अथवा ग्रंथकी स्थिति के इस दिग्दर्शन के सामने-सोनीजी के निम्न वाक्यों का कुछ भी मूल्य नहीं रहता, जो उन्होंने ग्रंथ के अनुवाद की भूमिका में दिये हैं: (१) "हमें तो ग्रंथ-परिशीलन से यही मालूम हुआ कि ग्रंथकर्ता की जैनधर्म पर भसीम भक्ति थी, मजैन विषयों से वे परहेज करते थे । बोग खामुखाँ अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये उनपर अवर्णवाद लगाते हैं।" (२) 'ग्रंथ की मूल भित्ति आदिपुराण पर से खड़ी हुई है।" ........"इस ग्रंथ के विषय ऋषिप्रति भागम में कहीं संक्षेप से और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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