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________________ [२२३] नाय तो वह तभी तो किया जा सकता है जब वैसी कोई इच्छा व्यक्त हो-कोई व्यन्तर क्रीड़ा करता हुआ किसी तरह पर प्रकट करे कि मुझे इस वक्त धोती निचोड़े का पानी चाहिये तो वह उसे दिया जा सकता हैपरंतु जब वैसी कोई इच्छा या क्रीडा व्यक्त ही न हो अथवा उसका अस्तित्व ही न हो तब भी उसकी पूर्ति की चेष्टा करना--बिना इच्छा भी किसी को जल पीने के लिये मजबूर करना अथवा पाने वाले के मौजूद न होते हुए भी पिलाने का दौंग करना -क्या अर्थ रखता है ? वह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है? क्या व्यन्तरदेवों को ऐसा असहाय या महाव्रती समझ लिया है जो वे बिना दूसरों के दिये स्वयं जल भी कहीं से ग्रहण न कर सकें ? वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है । भट्टारकजी का आशय यदि इस तर्पण से व्यन्तरों के कीड़ा-उद्देश्य की सिद्धि मात्र होता तो वे वैमी कोड़ा के समय है। अथवा उस प्रकार की सूचना मिलने पर ही तर्पण का विधान करते; क्योंकि कोई क्रीड़ा या इच्छा सार्वकालिक और स्थायी नहीं होती। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि प्रतिदिन और प्रत्येक स्नान के साथ में तर्पण का विधान किया है और उनकी व्यवस्थानुसार एक दिन में बीसियों बार स्नान की नौबत आ सकती है । अतः भट्टारकजी का यह तर्पणविधान व्यन्तरों के कंडा उद्देश्य को लेकर नहीं है किन्तु सीधा और साफ तौर पर हिन्दुओं के सिद्धान्त का अनुसरण मात्र है। और इसलिए यह सोनीजी की अपनी ही कल्पना और अपनी ही ईजाद है जो वे इस तर्पण को व्यन्तरों की क्रीड़ा के साथ बाँधते हैं और उसे किसी तरह पर खींचखाँचकर नैनधर्म की कोटि में लानेका निष्फल प्रयत्न करते है । ११ वें श्लोक के भावार्य में तो सोनीजी यह भी लिख गये हैं कि "व्यन्तरों को जल किसी उद्देश्य से नहीं दिया जाता है"! हेतु ? " क्योंकि यह बात श्लोक है। साफ कह रहा है कि कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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