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मजबूर किया हो उस वक्त ब्राह्मण लोग जैन द्विजों अथवा जैनधर्म में दीक्षितों को 'वर्णान्नः पाती' और संस्कारविहीनों को 'शूद्र' तक कहते थे; आश्चर्य नहीं जो यह बात नव दीक्षितों को खास कर विद्वानों को
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असह्य हो उठी हो और उसके प्रतीकार के लिये ही उन्होंने अथवा उनसे पूर्व दीक्षितों ने उपर्युक्त आयोजन किया हो । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि उस वक्त दक्षिण भारत में इस प्रकार के साहित्य की संहिता शास्त्रों, प्रतिष्ठा पाठों और त्रिवर्णाचारों की बहुत कुछ सृष्टि हुई है। एक संधि भ० जिन संहिता, इन्द्रनन्दि संहिता, नेमिचंद्र * संहिता, भद्रबाहु संहिता, आशाधर प्रतिष्ठापाठ, अकलंक प्रतिष्ठा पाठ और जिनसेन त्रिवर्णाचार आदि बहुत से ग्रंथ उसी वक्त के बने हुए हैं । इस प्रकार के सभी उपलब्ध ग्रंथों की सृष्टि विक्रम की प्रायः दूसरी सहस्राब्दी में पाई जाती है विक्रम की पहली सहस्राब्दी (दसवीं शताब्दी तक) का बना हुआ। वैसा एक भी ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ - और इससे यह जाना जाता है कि ये ग्रंथ उस जमाने की किसी खास हलचल के परिणाम हैं और इनके कितने ही नूतन विषयों का, जिन्हें खास तौर से लक्ष्य में रखकर ऐसे ग्रंथों की सृष्टि की गई है, जैनियों के प्राचीन साहित्य के साथ प्राय: कोई सम्बन्ध विशेष नहीं है । अस्तु, ग्रन्थका संग्रहत्व ।
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( १ ) इस त्रिवर्णाचार में सब से अधिक संग्रह यदि किसी ग्रंथ का किया गया है तो वह ब्रह्मसूरि का उक्त त्रिवर्णाचार ही है । सोमसेन ने अपने त्रिवर्णाचार की श्लोक संख्या, ग्रंथके अंत में, २७०० दी है और यह संख्या ३२ अक्षरों की श्लोक गणना के अनुसार
* मेमिचंद्र संहिताके रचयिता 'नेमिचंद्र' भी एक गृहस्थ विज्ञान थे और वे ब्रह्मसूरि के भानजे थे। देखो 'नेमिचंद्र संहिता' की प्रशस्ति अथवा जैन हितैषी के १२ वें भाग का अंक नं० ४-५.
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